भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"सुदामा चरित / नरोत्तमदास / पृष्ठ 10" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
पंक्ति 7: पंक्ति 7:
 
{{KKPageNavigation
 
{{KKPageNavigation
 
|पीछे=सुदामा चरित / नरोत्तमदास / पृष्ठ 9
 
|पीछे=सुदामा चरित / नरोत्तमदास / पृष्ठ 9
|आगे=सुदामा चरित / नरोत्तमदास / पृष्ठ 11
+
|आगे=
 
|सारणी=सुदामा चरित / नरोत्तमदास
 
|सारणी=सुदामा चरित / नरोत्तमदास
 
}}
 
}}

10:39, 14 फ़रवरी 2011 का अवतरण

कंचन चौकी डारि कै, दासी परम सुजानि ।
रतन जटित भाजन कनक, भरि गंगोदक आनि ।।91।।

घट कंचन को रतनयुत, सुचि सुगन्धि जल पूरि ।
रच्छाधान समेत कै, जल प्रकास भरपूरि ।।92।।

रतन जटित पीढा कनक, आन्यो जेंवन काम ।
मरकत-मनि चौकी धरी, कछुक दूरि छबि धाम ।।93।।

चौकी लई मॅगाय कै, पग धोवन के काज ।
मनि-पादुका पवित्र अति, धरी विविध विधि साज ।।94।।

चलि भोजन अब कीजिये, कह्यो दास मृदु भाखि ।
कृस्न कृस्न सानन्द कहि, धन्य भरी हरि साखि ।।95।।

बसन उतारे जाइ कै, धोवत चरन-सरोज ।
चौकी पै छबि देत यौं, जनु तनु धरे मनोज ।।96।।

पहिरि पादुका बिप्र बर, पीढा बैठे जाय ।
रति ते अति छवि- आगरी, पति सो हँसि मुसकाय ।।97।।

बिबिध भाँति भोजन धरे, व्यंजन चारि प्रकार ।
जोरी पछिओरी सकल, प्रथम कहे नहिं पार ।।98।।

हरिहिं समर्पो कन्त अब, कहो मन्द हँसि वाम ।
करि घंटा को नाद त्यों, हरि सपर्पि लै नाम ।।99।।

अगिनि जेंवाय विधान सों, वैस्यदेव करि नेम ।
बली काढि जेंवन लगे, करत पवन तिय प्रेम ।।100।।

बार बार पूछति प्रिया, लीजै जो रूचि होइ ।
कृस्न- कृपा पूरन सबै, अबै परोसौं सोइ ।।101।।

जेंइ चुके, अँचवन लगे, करन हेतु विश्राम ।
रतन जटित पलका-कनक, बुनो सो रेशम दाम ।।102।।

ललित बिछौना, बिरचि कै, पाँयत कसि कै डोरि ।
राखे बसन सुसेवकनि, रूचिर अतर सों बोरि ।।103।।

पानदान नेरे धर्यो भरि, बीरा छवि-धाम ।
चरन धोय पौढन लगे, करन हेतु विश्राम ।।104।।

कोउ चँवर कोउ बीजना, कोउ सेवत पद चारू ।

अति विचित्र भूषन सजे, गज मोतिन के हारू ।।105।।

करि सिंगार पिय पै गई, पान खाति मुसुकाति ।
कहौ कथा सब आदि तें, किमि दीन्हों सौगाति। ।106।।

कही कथा सब आदि ते, राह चले की पीर ।
सेावत जिमि ठाढो कियो, नदी गोमती तीर ।।107।।

गये द्वार जिहि भाँति सों, सो सब करी बखानि ।
कहि न जाय मुख लाल सों, कृस्न मिले जिमि आनि ।।108।।

करि गहि भीतर लै गए, जहाँ सकल रनिवास ।
पग धोवन को आपुही, बैठे रमानिवास ।।109।।

देखि चरन मेरे चल्यो, प्रभु नयनन तें बारि ।
ताही सों धोये चरन, देखि चकित नर-नारि ।।110।।

बहुरि कही श्री कृस्न जिमि, तन्दुल लीन्हें आप ।
भेंटे हृदय लगाय कै, मेटे भ्रम सन्ताप ।।111।।

बहुरि कही जेवनार सब, जिमि कीन्हीं बहु भाँति ।
बरनि कहाँ लगि को कहै, सब व्यंजन की पाँति ।।112।।