भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
|रचनाकार=रमा द्विवेदी
}}
नगरों में औद्यॊगिक बस्तियां हंस रही हैं,<br>
किन्तु चरित्र की दुल्हन आहें भर रही है।<br>
विज्ञान की दीवार ऊंची उठ रही है,<br>
धर्म की दीवार नीचे धंस रही है॥<br><br>
सुविधाओं का चांद मुस्कुरा रहा है,<br>
संयम का सूरज ढ़ल रहा है।<br>
बुद्धि की प्रखरता प्रगति पथ पर अग्रसर है,<br>
किन्तु हृदय की सुकुमारिता,म्रिग-मरीचका में भटकने लगा है॥<br><br>
रंग रोगन जर्जर काष्ठ का काया कल्प करने लगा है,<br>
बुरादा चाय के सांचे में ढ़लने लगा है।<br>
सादगी फिसलने लगी है,फैशन संभलने लगा है,<br>
स्वार्थ जमने लगा है,परमार्थ लड़खड़ाने लगा है॥<br><br>
असलियत रोने लगी है, बनावट हंसने लगी है,<br>
कृतज्ञता कुम्हलाने लगी है,कृतघ्नता लहलहाने लगी है।<br>
स्नेह सिमटनें लगा है, वैमनस्य बढ़ने लगा है,<br>
विश्वास उखड़ने लगा है,संदेह जमने लगा है॥<br><br>
साहित्यिक उपवन में विधाओं की कोपलें फूटने लगी हैं,<br>
किन्तु भावपक्ष का निर्झर सूखने लगा है ।<br>
साहित्यिक कृतियों में वासना बसने लगी है,<br>
आदर्श का दम घुटने लगा है॥<br><br>
बांध बांधे गये,सड़कों,रेलवे लाईनों के जाल बिछाये गये,<br>
वायुयान उड़ाये गये,शान्ति फिर भी न मिल सकी ,<br>
वह न जाने कहां हवा हो गई?<br>
सुविधाएं तो जरूर मिली , पर दुविधाएं तो हल न हो सकी॥<br><br>
अर्थवाद की मीनार ऊंची उठी,<br>
किन्तु नैतिकता की भित्तियां लरजने लगी ।<br>
कारखानों की धुंआ उगलने वाली चिमनियां,<br>
मानव हृदय को कालिमा से ढ़कने लगी ॥<br><br>
वचन बद्धता से नाता टूट गया,<br>
वचन भंगता मान्यता पाने लगी।<br>
जनमानस के मदिरालय में,<br>
भौतिकवादी सुरा छलकने लगी॥<br><br>
आध्यात्मवाद का चमचमाता चषक<br>
चूर-चूर हो गया है ।<br>
'वसुधैव कुटुम्बकम' के गीत गानेवाले हम,<br>
प्रान्तीयता के जाल में उलझे हुए हैं ॥<br><br>
दया,क्षमा,त्याग,पर-दु:ख कातरता छोड़,<br>
क्रूरता, पर-पीड़ा और स्वार्थ को गले लगाया है।<br>
अब स्वयं निर्णय करो स्वतंत्र भारत ने ,<br>
क्या खोया? क्या पाया है?क्या यही हमारा सपना था??<br><br>
Anonymous user