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"हल्का-फुल्का / प्रतिभा सक्सेना" के अवतरणों में अंतर

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निकल आओ कमरे से बाहर ज़रा ,
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इस खुली अगहनी धूप में बैठ लें !
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खींच लें प्लास्टिकी कुर्सियाँ ,इस तरफ़
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साथ चलती सड़क का किनारा मिले !
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खिड़कियाँ कुछ खुली हैं घरों की अभी ,
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झाँकती लड़कियों का नज़ारा मिले !
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दूध के दाँत आगे के टूटे हुये
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झर रही हैं हँसी की फुहारें बिखर ,
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फूलवाली नई फ़्राक पहने हुये
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एक बच्ची चली आ रही है इधर !
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हाथ पकड़े हुये भाई थोड़ा बड़ा ,
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दूसरे हाथ से है सम्हाले हुये 
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पेट से खिसक आता पजामा ज़रा !
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वाह, ठेले पे ,कैसी हरी औ' भरी
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ताज़ी  टूटी हुई वो मटर की फली !
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हींग-ज़ीरा हरी मिर्च  से छौंककर ,
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साथ में शाम की चाय अदरक डली !
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आओ , छीलें मटर भी यहीं बैठ कर
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और छिलके उधर डाल दें गाय को !
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कोई पूछे कि क्या हो रहा है, कहें ,
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'देख ले आप ही ,पूछता काय को ?'
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धूप जब तक इधर से उधर तक चले
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हम भी अपनी वहीं कुर्सियाँ खींच लें !
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आज टालो नहाना ,जरूरी नहीं ,
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एक दिन ताश की गड्डियाँ फेंट लें !
  
 
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08:46, 28 फ़रवरी 2011 के समय का अवतरण

निकल आओ कमरे से बाहर ज़रा ,
इस खुली अगहनी धूप में बैठ लें !
खींच लें प्लास्टिकी कुर्सियाँ ,इस तरफ़
साथ चलती सड़क का किनारा मिले !
खिड़कियाँ कुछ खुली हैं घरों की अभी ,
झाँकती लड़कियों का नज़ारा मिले !
दूध के दाँत आगे के टूटे हुये
झर रही हैं हँसी की फुहारें बिखर ,
फूलवाली नई फ़्राक पहने हुये
एक बच्ची चली आ रही है इधर !
हाथ पकड़े हुये भाई थोड़ा बड़ा ,
दूसरे हाथ से है सम्हाले हुये
पेट से खिसक आता पजामा ज़रा !
वाह, ठेले पे ,कैसी हरी औ' भरी
ताज़ी टूटी हुई वो मटर की फली !
हींग-ज़ीरा हरी मिर्च से छौंककर ,
साथ में शाम की चाय अदरक डली !
आओ , छीलें मटर भी यहीं बैठ कर
और छिलके उधर डाल दें गाय को !
कोई पूछे कि क्या हो रहा है, कहें ,
'देख ले आप ही ,पूछता काय को ?'
धूप जब तक इधर से उधर तक चले
हम भी अपनी वहीं कुर्सियाँ खींच लें !
आज टालो नहाना ,जरूरी नहीं ,
एक दिन ताश की गड्डियाँ फेंट लें !