"किरातिन / प्रतिभा सक्सेना" के अवतरणों में अंतर
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− | किस किरातिन ने लगा दी आग , | + | किस किरातिन ने लगा दी आग, |
धू-धू जल उठा वन ! | धू-धू जल उठा वन ! | ||
रवि किरण जिसका सरस तल छू न पाई | रवि किरण जिसका सरस तल छू न पाई | ||
युगों तक पोषित धरित्री ने किया जिनको लगन से ! | युगों तक पोषित धरित्री ने किया जिनको लगन से ! | ||
− | पार करते उन सघन हरियालियों को प्रखर सूरज किरण अपनी तीव्रता खो , | + | पार करते उन सघन हरियालियों को प्रखर सूरज किरण अपनी तीव्रता खो, |
− | हो उठे मृदु श्याम वर्णी , | + | हो उठे मृदु श्याम वर्णी, |
− | वही वन की नेह भीगी धरा , ओढे है अँगारे ! | + | वही वन की नेह भीगी धरा, ओढे है अँगारे ! |
जल रही है घास-दूर्वायें कि जिनको | जल रही है घास-दूर्वायें कि जिनको | ||
− | तुहिन कण ले सींचते संध्या सकारे , | + | तुहिन कण ले सींचते संध्या सकारे, |
भस्म हो हो कर हवाओं में समाये ! | भस्म हो हो कर हवाओं में समाये ! | ||
− | जल गये हैं तितलियों के पंख , चक्कर काटते भयभीत, खग, | + | जल गये हैं तितलियों के पंख, चक्कर काटते भयभीत, खग, |
− | उन बिरछ डालों पर सजा था नीड़,करते रोर | + | उन बिरछ डालों पर सजा था नीड़, करते रोर |
गिरते देखते नव शावकों की देह जलते घोंसलों से ! | गिरते देखते नव शावकों की देह जलते घोंसलों से ! | ||
और सर्पिल धूम लहराता गगन तक ! | और सर्पिल धूम लहराता गगन तक ! | ||
− | वृक्ष से छुट-छुट गिरीं चट्-चट् लतायें , | + | वृक्ष से छुट-छुट गिरीं चट्-चट् लतायें, |
− | धूम के पर्वत उठे , | + | धूम के पर्वत उठे, |
− | लपटें लपेटे ,शाख तरु की ,फूल ,फल पत्ते निगलती ! | + | लपटें लपेटे, शाख तरु की,फूल, फल पत्ते निगलती ! |
− | भुन रहे जीवित, विकल चीत्कार करते जीव ,- | + | भुन रहे जीवित, विकल चीत्कार करते जीव,- |
जायेंगे कहाँ, वे इस लपट से उस लपट तक ! | जायेंगे कहाँ, वे इस लपट से उस लपट तक ! | ||
यहाँ तो इस ओर से उस ओर तक नर्तित शिखायें वह्नि की | यहाँ तो इस ओर से उस ओर तक नर्तित शिखायें वह्नि की | ||
− | लपलप अरुण जिहृवा पसारे ,कर रहीं पीछा निरंतर ! | + | लपलप अरुण जिहृवा पसारे, कर रहीं पीछा निरंतर ! |
− | और हँसती है किरातिन , | + | और हँसती है किरातिन, |
जल रहा वन खिलखिलाती है | जल रहा वन खिलखिलाती है | ||
− | + | किरातिन ! | |
− | + | ||
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20:44, 28 फ़रवरी 2011 के समय का अवतरण
किस किरातिन ने लगा दी आग,
धू-धू जल उठा वन !
रवि किरण जिसका सरस तल छू न पाई
युगों तक पोषित धरित्री ने किया जिनको लगन से !
पार करते उन सघन हरियालियों को प्रखर सूरज किरण अपनी तीव्रता खो,
हो उठे मृदु श्याम वर्णी,
वही वन की नेह भीगी धरा, ओढे है अँगारे !
जल रही है घास-दूर्वायें कि जिनको
तुहिन कण ले सींचते संध्या सकारे,
भस्म हो हो कर हवाओं में समाये !
जल गये हैं तितलियों के पंख, चक्कर काटते भयभीत, खग,
उन बिरछ डालों पर सजा था नीड़, करते रोर
गिरते देखते नव शावकों की देह जलते घोंसलों से !
और सर्पिल धूम लहराता गगन तक !
वृक्ष से छुट-छुट गिरीं चट्-चट् लतायें,
धूम के पर्वत उठे,
लपटें लपेटे, शाख तरु की,फूल, फल पत्ते निगलती !
भुन रहे जीवित, विकल चीत्कार करते जीव,-
जायेंगे कहाँ, वे इस लपट से उस लपट तक !
यहाँ तो इस ओर से उस ओर तक नर्तित शिखायें वह्नि की
लपलप अरुण जिहृवा पसारे, कर रहीं पीछा निरंतर !
और हँसती है किरातिन,
जल रहा वन खिलखिलाती है
किरातिन !