भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"जब उजाले की कहीं / शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
पंक्ति 8: | पंक्ति 8: | ||
'''जब उजाले की कहीं''' | '''जब उजाले की कहीं''' | ||
जब उजाले की कहीं कोई, किरण दिखती नहीं, | जब उजाले की कहीं कोई, किरण दिखती नहीं, | ||
− | + | तिमिरदंशित सरहदों को पार हम कैसे करें? | |
हर गली में हो रहे हैं | हर गली में हो रहे हैं | ||
पंक्ति 17: | पंक्ति 17: | ||
तिमिरदंशित सरहदों को पार हम कैसे करें? | तिमिरदंशित सरहदों को पार हम कैसे करें? | ||
− | + | इन्द्रधनुषी करतबों में बात की बाजीगरी | |
− | पंख नुचने से हुयी है आज | + | पंख नुचने से हुयी है आज चिड़िया अधमरी |
व्यथित मन में जब नयी सम्भावना खिलती नहीं | व्यथित मन में जब नयी सम्भावना खिलती नहीं | ||
तिमिरदंशित सरहदों को पार हम कैसे करें? | तिमिरदंशित सरहदों को पार हम कैसे करें? | ||
− | चांदनी के नाम | + | चांदनी के नाम बंटती |
हर कहीं पर दोपहर | हर कहीं पर दोपहर | ||
घुल गये संवेदना में | घुल गये संवेदना में | ||
स्वार्थ के मीठे जहर, | स्वार्थ के मीठे जहर, | ||
लेखनी भी मन हमारे अब अनल भरती नहीं, | लेखनी भी मन हमारे अब अनल भरती नहीं, | ||
− | तिमिरदंशित सरहदों | + | तिमिरदंशित सरहदों को पार हम कैसे करें? |
</poem> | </poem> |
13:38, 29 अप्रैल 2011 के समय का अवतरण
जब उजाले की कहीं
जब उजाले की कहीं कोई, किरण दिखती नहीं,
तिमिरदंशित सरहदों को पार हम कैसे करें?
हर गली में हो रहे हैं
कोबरों के विषवमन
तस्करों से घिर गये हैं
चन्दनों के आज वन
मंजिलों तक जा पहुंचने की डगर मिलती नहीं,
तिमिरदंशित सरहदों को पार हम कैसे करें?
इन्द्रधनुषी करतबों में बात की बाजीगरी
पंख नुचने से हुयी है आज चिड़िया अधमरी
व्यथित मन में जब नयी सम्भावना खिलती नहीं
तिमिरदंशित सरहदों को पार हम कैसे करें?
चांदनी के नाम बंटती
हर कहीं पर दोपहर
घुल गये संवेदना में
स्वार्थ के मीठे जहर,
लेखनी भी मन हमारे अब अनल भरती नहीं,
तिमिरदंशित सरहदों को पार हम कैसे करें?