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"पनघटों पर धूल / हरीश निगम" के अवतरणों में अंतर

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थोड़ा अपना वज़न घटाओ
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गाँव अब  
भइया बस्‍ते जी।
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हम बच्‍चों का साथ निभाओ
+
भइया बस्‍ते जी।
+
 
+
गुब्‍बारे से फूल रहे तुम
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भरे हाथी से,
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कुछ ही दिन में नहीं लगोगे
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मेरे साथी से।
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फिर क्‍यों ऐसा रोग लगाओ
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भइया बस्‍ते जी।
+
 
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कमर हमारी टूट रही है
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कांधे दुखते हैं,
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तुमको लेकर चलते हैं कम
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ज़्यादा रूकते हैं।
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कुछ तो हम पर दया दिखाओ
+
भइया बस्‍ते जी।
+
</poem>गाँव अब  
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लगते नहीं हैं  
 
लगते नहीं हैं  
 
गाँव से!  
 
गाँव से!  

20:47, 8 मार्च 2011 के समय का अवतरण

गाँव अब
लगते नहीं हैं
गाँव से!

पनघटों में धूल
सूने खेत
घूमते अमराइयों में प्रेत,
आ रही लू, नीम वाली
छाँव से!

ठूँठ अपनापन झरे
मन-पात
कोयलों पर बाज की है घात,
धूप के हैं थरथराते
पाँव से!

खाँसते
आँगन हवा में टीस
कब्र में डूबे घुने आशीष,
लोग हैं हारे हुए हर
दाँव से।