भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"विनयावली / तुलसीदास / पृष्ठ 25" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
पंक्ति 12: पंक्ति 12:
 
<poem>
 
<poem>
 
'''पद 241 से 250 तक'''
 
'''पद 241 से 250 तक'''
 +
 
(245)
 
(245)
 +
 
मेहि मूढ़ मन बहुत बिगोयो।  
 
मेहि मूढ़ मन बहुत बिगोयो।  
 +
 
याके लिये सुनहु करूनामय, मैं जग जनमि-जनमि दुख रोयो।।  
 
याके लिये सुनहु करूनामय, मैं जग जनमि-जनमि दुख रोयो।।  
 +
 
सीतल, मधुर, पियूष सहज सुख निकटहि रहत दूरि जनु खोयो।  
 
सीतल, मधुर, पियूष सहज सुख निकटहि रहत दूरि जनु खोयो।  
 +
 
बहु भाँतिन स्त्रम करत मोहबस,बृथहि मंदमति बारि बिलोयो।।  
 
बहु भाँतिन स्त्रम करत मोहबस,बृथहि मंदमति बारि बिलोयो।।  
 +
 
करम-कीच जिय जानि, सानिचित, चाहत कुटिल मलहि मल धोयो।  
 
करम-कीच जिय जानि, सानिचित, चाहत कुटिल मलहि मल धोयो।  
 +
 
तृषावंत सुरसरि बिहाय सठ फिरि-फिरि बिकल अकास निचोयो।।  
 
तृषावंत सुरसरि बिहाय सठ फिरि-फिरि बिकल अकास निचोयो।।  
 +
 
तुलसिदास प्रभु! कृपा करहु अब, मैं निज दोष कछू नहिं गोयो।  
 
तुलसिदास प्रभु! कृपा करहु अब, मैं निज दोष कछू नहिं गोयो।  
 +
 
डासत ही बीति गयी निसा सब, कहहूँ न नाथ! नींद भरि सोयो।।
 
डासत ही बीति गयी निसा सब, कहहूँ न नाथ! नींद भरि सोयो।।
  
 
</poem>
 
</poem>

14:28, 11 मार्च 2011 का अवतरण

पद 241 से 250 तक

(245)

मेहि मूढ़ मन बहुत बिगोयो।

याके लिये सुनहु करूनामय, मैं जग जनमि-जनमि दुख रोयो।।

सीतल, मधुर, पियूष सहज सुख निकटहि रहत दूरि जनु खोयो।

बहु भाँतिन स्त्रम करत मोहबस,बृथहि मंदमति बारि बिलोयो।।

करम-कीच जिय जानि, सानिचित, चाहत कुटिल मलहि मल धोयो।

तृषावंत सुरसरि बिहाय सठ फिरि-फिरि बिकल अकास निचोयो।।

तुलसिदास प्रभु! कृपा करहु अब, मैं निज दोष कछू नहिं गोयो।

डासत ही बीति गयी निसा सब, कहहूँ न नाथ! नींद भरि सोयो।।