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"विनयावली / तुलसीदास / पृष्ठ 9" के अवतरणों में अंतर

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'''पद 81 से 90 तक'''
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कछु ह्वै न आई गयो जनम जाय।
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अति दुरलभ तनु पाइ कपट तजि भजे राम मन बचन-काय।।
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लरिकाईं बीती अचेत चित, चंचलता चौगुने चाय।
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जोबन-जुर जुबती कुपथ्य करि, भयो त्रिदोष भरि मदन-बाय।।
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मध्य बसस धन हेेतु गँवाई, कृषी बनिज नाना उपाय।
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राम-बिमुख सुख लह्यो न सपनेहुँ, निसिबासर तयौ तिहूँ ताय।।
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सेये नहिं सीतापति-सेवक, साधु सुमति भलि भगति भाय।
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सुने न पुलकि तनु, कहे न मुदित मन किये जे चरित रघुबंसराय।।
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अब सोचत मनि बिनु भुअंग ज्यों, बिकल अंग दले जरा धाय।
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सिर धुनि-धुनि पछितात मींजि कर कोउ न मीत हित दुसह दाय।।
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जिन्ह लगि निज परलोक बिगार्यो, ते लजात होत ठाढ़े ठाँय।
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तुलसी अजहुँ सुमिरि रघुनाथहिं, तर्यौ गयँद जाके एक नाँय।।
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मन! माधवको नेकु निहारहि।
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सुनु सठ, सदा रंकके धन ज्यों, छिन-छिन प्रभुहिं सँभारहि।।
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सोभा-सील-ग्यान-गुन-मंदिर, सुंदर परम उदारहि।
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रंजन संत, अखिल अघ-गंजन , भंजन बिषय-बिकारहि।।
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जो बिनु जोग-जग्य-ब्रत-संयम गयेा चहै भव-पारहि।
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तौ जानि तुलसिदास निसि-बासर हरि-पद-कमल बिसारहि।।
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(86)
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इहै कहृयो सुत! ब्ेाद चहूूँ ।
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श्रीरघुवीर-चरन-चिंतन तजि नाहिन ठौर कहूँ।।
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जाके चरन बिरंचि सेइ सिधि पाई संकरहूँ।
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सुक-सनकादि मुकुत बिचरत तुउ भजन करत अजहूँ।।
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जद्यपि परम चपल श्री संतत, थिर न रहति कतहूँ।
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हरि -पद-पंकज पाइ अचल भइ, करम-बचन-मनहूँ।।
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करूनासिंधु, भगत-चिंतामनि, सोभा संवतहूँ।।
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और सकल सुर, असुर-ईस सब खाये उरग छहूँ।।
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सुरूचि कह्यो सेाइ सत्य तात अति परूष बचन जबहूँ।।
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तुलसिदास रघुनाथ-बिमुख नहिं मिटइ बिपति कबहूँ।।
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दीन
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19:39, 28 मार्च 2011 का अवतरण