भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"मौतों से उपजी मौत / मुसाफ़िर बैठा" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मुसाफ़िर बैठा |संग्रह=बीमार मानस का गेह / मुसाफ…)
 
 
पंक्ति 4: पंक्ति 4:
 
|संग्रह=बीमार मानस का गेह / मुसाफ़िर बैठा  
 
|संग्रह=बीमार मानस का गेह / मुसाफ़िर बैठा  
 
}}
 
}}
 +
{{KKAnthologyDeath}}
 
{{KKCatKavita}}
 
{{KKCatKavita}}
 
<poem>
 
<poem>

02:10, 6 अप्रैल 2011 के समय का अवतरण

वह था इतना अकिंचन क्षुधा आकुल
कि काफी हद तक मर गई थीं
भूख की वेदनाएं उसकी
और अन्न से ज्यादा भूख से ही
अचाहा अपनापा हो गया था उसका

उसकी मज्जाहीन देह पर थे
इतने क्षीण जीर्ण-शीर्ण वस्त्रा
कि उसके गुप्त अंक का भी
उनसे ढकना था नाकाफी
और मर गई थी संवेदना-तंतुएं उसकी
शर्म हया की

अंग अंंग हो चले थे उसके
इतने शिथिल असक्त
मानो उसमें न हो कोई
प्राण स्पंदन बाकी
आसरा की जगह
 ध्क्किार दुत्कार पाई थी उसने
 जमाने से इस कदर दर दर भटक
 कि तमाम नसें सूख गई थीं उसके
 आत्मसम्मान की आत्मवजूद की
 और तमाम हो गई थीं तब तक
 उसकी इच्छाएं तृषणाएं सारी

 अंततः
 जब एक दिन
 एक भव्य मंदिर की देहरी से लगी
 भूख व्याकुल-भिक्षुओं की याचक पांत में
 निश्चेत लेटे उसने
 अपनी निस्तेज देह छोड़ी
 तो उसकी देह से लगी
 सारी मौतों को आसन्न मौतों को
 जैसे एक अर्थ मिला एक मान मिला ।

2007