भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"छाया मत छूना / गिरिजाकुमार माथुर" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गिरिजाकुमार माथुर }} छाया मत छूना मन, होता है दुख दूना।...)
 
पंक्ति 36: पंक्ति 36:
 
मन, होगा दुख दूना।
 
मन, होगा दुख दूना।
  
दुविधा-हत साहस है, दिखता है पंख नहीं,
+
दुविधा-हत साहस है, दिखता है पंथ नहीं
  
 
देह सुखी हो पर मन के दुख का अंत नहीं।
 
देह सुखी हो पर मन के दुख का अंत नहीं।

17:49, 12 मई 2011 का अवतरण

छाया मत छूना

मन, होता है दुख दूना।

जीवन में हैं सुरंग सुधियाँ सुहावनी

छवियों की चित्र-गंध फैली मनभावनी;

तन-सुगंध शेष रही, बीत गई यामिनी,

कुंतल के फूलों की याद बनी चाँदनी।

भूली-सी एक छुअन बनता हर जीवित क्षण-

छाया मत छूना

मन, होगा दुख दूना।

यश है या न वैभव है, मान है या न सरमाया;

जितना ही दौड़ा तू उतना ही भरमाया।

प्रभुता का शरण-बिंब केवल मृगतृष्‍णा है,

हर चंद्रिका में छिपी एक रात कृष्‍णा है।

जो है यथार्थ कठिन उसका तू कर पूजन-

छाया मत छूना

मन, होगा दुख दूना।

दुविधा-हत साहस है, दिखता है पंथ नहीं

देह सुखी हो पर मन के दुख का अंत नहीं।

दुख है न चाँद खिला शरद-रात आने पर,

क्‍या हुया जो खिला फूल रस-बसंत जाने पर?

जो न मिला भूल उसे कर तू भविष्‍य वरण,

छाया मत छूना

मन, होगा दुख दूना।