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पिता की निर्ब्याज याद / मुसाफ़िर बैठा
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मानो उस डायरी और बही-खाते के
हर एक
अक्षर
आखर
का
खुद भी एक हिस्सा बन गई हों वे ।
2005
</poem>
Musafir Baitha
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