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"संध्‍या के बाद / सुमित्रानंदन पंत" के अवतरणों में अंतर

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|रचनाकार=सुमित्रानंदन पंत
 
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सिमटा पंख साँझ की लाली
 
सिमटा पंख साँझ की लाली
 
 
जा बैठी तरू अब शिखरों पर
 
जा बैठी तरू अब शिखरों पर
 
 
ताम्रपर्ण पीपल से, शतमुख
 
ताम्रपर्ण पीपल से, शतमुख
 
 
झरते चंचल स्‍वर्णिम निझर!
 
झरते चंचल स्‍वर्णिम निझर!
 
 
ज्‍योति स्‍थंभ-सा धँस सरिता में
 
ज्‍योति स्‍थंभ-सा धँस सरिता में
 
 
सूर्य क्षितीज पर होता ओझल
 
सूर्य क्षितीज पर होता ओझल
 
 
बृहद जिह्म ओझल केंचुल-सा
 
बृहद जिह्म ओझल केंचुल-सा
 
 
लगता चितकबरा गंगाजल!
 
लगता चितकबरा गंगाजल!
 
 
धूपछाँह के रंग की रेती
 
धूपछाँह के रंग की रेती
 
 
अनिल ऊर्मियों से सर्पांकित
 
अनिल ऊर्मियों से सर्पांकित
 
 
नील लहरियों में लोरित
 
नील लहरियों में लोरित
 
 
पीला जल रजत जलद से बिंबित!
 
पीला जल रजत जलद से बिंबित!
 
 
सिकता, सलिल, समीर सदा से,
 
सिकता, सलिल, समीर सदा से,
 
 
स्‍नेह पाश में बँधे समुज्‍ज्‍वल,
 
स्‍नेह पाश में बँधे समुज्‍ज्‍वल,
 
 
अनिल पीघलकर सलि‍ल, सलिल
 
अनिल पीघलकर सलि‍ल, सलिल
 
 
ज्‍यों गति द्रव खो बन गया लवोपल
 
ज्‍यों गति द्रव खो बन गया लवोपल
 
 
शंख घट बज गया मंदिर में
 
शंख घट बज गया मंदिर में
 
 
लहरों में होता कंपन,
 
लहरों में होता कंपन,
 
 
दीप शीखा-सा ज्‍वलित कलश
 
दीप शीखा-सा ज्‍वलित कलश
 
 
नभ में उठकर करता निराजन!
 
नभ में उठकर करता निराजन!
 
 
तट पर बगुलों-सी वृद्धाएँ
 
तट पर बगुलों-सी वृद्धाएँ
 
 
विधवाएँ जप ध्‍यान में मगन,
 
विधवाएँ जप ध्‍यान में मगन,
 
 
मंथर धारा में बहता
 
मंथर धारा में बहता
 
 
जिनका अदृश्‍य, गति अंतर-रोदन!
 
जिनका अदृश्‍य, गति अंतर-रोदन!
 
 
दूर तमस रेखाओं सी,
 
दूर तमस रेखाओं सी,
 
 
उड़ती पंखों सी-गति चित्रित
 
उड़ती पंखों सी-गति चित्रित
 
 
सोन खगों की पाँति
 
सोन खगों की पाँति
 
 
आर्द्र ध्‍वनि से निरव नभ करती मुखरित!
 
आर्द्र ध्‍वनि से निरव नभ करती मुखरित!
 
 
स्‍वर्ण चूर्ण-सी उड़ती गोरज
 
स्‍वर्ण चूर्ण-सी उड़ती गोरज
 
 
किरणों की बादल-सी जलकर,
 
किरणों की बादल-सी जलकर,
 
 
सनन् तीर-सा जाता नभ में
 
सनन् तीर-सा जाता नभ में
 
 
ज्‍योतित पंखों कंठों का स्‍वर!
 
ज्‍योतित पंखों कंठों का स्‍वर!
 
 
लौटे खग, गायें घर लौटीं
 
लौटे खग, गायें घर लौटीं
 
 
लौटे कृषक श्रांत श्‍लथ डग धर
 
लौटे कृषक श्रांत श्‍लथ डग धर
 
 
छिपे गृह में म्‍लान चराचर
 
छिपे गृह में म्‍लान चराचर
 
 
छाया भी हो गई अगोचर,
 
छाया भी हो गई अगोचर,
 
 
लौट पैंठ से व्‍यापारी भी
 
लौट पैंठ से व्‍यापारी भी
 
 
जाते घर, उस पार नाव पर,
 
जाते घर, उस पार नाव पर,
 
 
ऊँटों, घोड़ों के संग बैठे
 
ऊँटों, घोड़ों के संग बैठे
 
 
खाली बोरों पर, हुक्‍का भर!
 
खाली बोरों पर, हुक्‍का भर!
 
 
जोड़ों की सुनी द्वभा में,
 
जोड़ों की सुनी द्वभा में,
 
 
झूल रही निशि छाया छाया गहरी,
 
झूल रही निशि छाया छाया गहरी,
 
 
डूब रहे निष्‍प्रभ विषाद में
 
डूब रहे निष्‍प्रभ विषाद में
 
 
खेत, बाग, गृह, तरू, तट लहरी!
 
खेत, बाग, गृह, तरू, तट लहरी!
 
 
बिरहा गाते गाड़ी वाले,
 
बिरहा गाते गाड़ी वाले,
 
 
भूँक-भूँकर लड़ते कूकर,
 
भूँक-भूँकर लड़ते कूकर,
 
 
हुआँ-हुआँ करते सियार,
 
हुआँ-हुआँ करते सियार,
 
 
देते विषण्‍ण निशि बेला को स्‍वर!
 
देते विषण्‍ण निशि बेला को स्‍वर!
 
  
 
माली की मँड़इ से उठ,
 
माली की मँड़इ से उठ,
 
 
नभ के नीचे नभ-सी धूमाली
 
नभ के नीचे नभ-सी धूमाली
 
 
मंद पवन में तिरती
 
मंद पवन में तिरती
 
 
नीली रेशम की-सी हलकी जाली!
 
नीली रेशम की-सी हलकी जाली!
 
 
बत्‍ती जल दुकानों में
 
बत्‍ती जल दुकानों में
 
 
बैठे सब कस्‍बे के व्‍यापारी,
 
बैठे सब कस्‍बे के व्‍यापारी,
 
 
मौन मंद आभा में
 
मौन मंद आभा में
 
 
हिम की ऊँध रही लंबी अधियारी!
 
हिम की ऊँध रही लंबी अधियारी!
 
 
धुआँ अधिक देती है
 
धुआँ अधिक देती है
 
 
टिन की ढबरी, कम करती उजियाली,
 
टिन की ढबरी, कम करती उजियाली,
 
 
मन से कढ़ अवसाद श्रांति
 
मन से कढ़ अवसाद श्रांति
 
 
आँखों के आगे बुनती जाला!
 
आँखों के आगे बुनती जाला!
 
 
छोटी-सी बस्‍ती के भीतर
 
छोटी-सी बस्‍ती के भीतर
 
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लेन-देन के थोथे सपने
लेन-देन के थोथ्‍ो सपने
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दीपक के मंडल में मिलकर
 
दीपक के मंडल में मिलकर
 
 
मँडराते घिर सुख-दुख अपने!
 
मँडराते घिर सुख-दुख अपने!
 
 
कँप-कँप उठते लौ के संग
 
कँप-कँप उठते लौ के संग
 
 
कातर उर क्रंदन, मूक निराशा,
 
कातर उर क्रंदन, मूक निराशा,
 
 
क्षीण ज्‍योति ने चुपके ज्‍यों
 
क्षीण ज्‍योति ने चुपके ज्‍यों
 
 
गोपन मन को दे दी हो भाषा!
 
गोपन मन को दे दी हो भाषा!
 
 
लीन हो गई क्षण में बस्‍ती,
 
लीन हो गई क्षण में बस्‍ती,
 
 
मिली खपरे के घर आँगन,
 
मिली खपरे के घर आँगन,
 
 
भूल गए लाला अपनी सुधी,
 
भूल गए लाला अपनी सुधी,
 
 
भूल गया सब ब्‍याज, मूलधन!
 
भूल गया सब ब्‍याज, मूलधन!
 
 
सकूची-सी परचून किराने की ढेरी
 
सकूची-सी परचून किराने की ढेरी
 
 
लग रही ही तुच्‍छतर,
 
लग रही ही तुच्‍छतर,
 
 
इस निरव प्रदोष में आकुल
 
इस निरव प्रदोष में आकुल
 
 
उमड़ रहा अंतर जग बाहर!
 
उमड़ रहा अंतर जग बाहर!
 
 
अनुभव करता लाला का मन,
 
अनुभव करता लाला का मन,
 
 
छोटी हस्‍ती का सस्‍तापन,
 
छोटी हस्‍ती का सस्‍तापन,
 
 
जाग उठा उसमें मानव,
 
जाग उठा उसमें मानव,
 
 
औ' असफल जीवन का उत्‍पीड़न!
 
औ' असफल जीवन का उत्‍पीड़न!
 
 
दैन्‍य दुख अपमाल ग्‍लानि
 
दैन्‍य दुख अपमाल ग्‍लानि
 
 
चिर क्षुधित पिपासा, मृत अभिलाषा,
 
चिर क्षुधित पिपासा, मृत अभिलाषा,
 
 
बिना आय की क्‍लांति बनी रही
 
बिना आय की क्‍लांति बनी रही
 
 
उसके जीवन की परिभाषा!
 
उसके जीवन की परिभाषा!
 
 
जड़ अनाज के ढेर सदृश ही
 
जड़ अनाज के ढेर सदृश ही
 
 
वह दीन-भर बैठा गद्दी पर
 
वह दीन-भर बैठा गद्दी पर
 
 
बात-बात पर झूठ बोलता
 
बात-बात पर झूठ बोलता
 
 
कौड़ी-सी स्‍पर्धा में मर-मर!
 
कौड़ी-सी स्‍पर्धा में मर-मर!
 
 
फिर भी क्‍या कुटुंब पलता है?
 
फिर भी क्‍या कुटुंब पलता है?
 
 
रहते स्‍वच्‍छ सुधर सब परिजन?
 
रहते स्‍वच्‍छ सुधर सब परिजन?
 
 
बना पा रहा वह पक्‍का घर?
 
बना पा रहा वह पक्‍का घर?
 
 
मन में सुख है? जुटता है धन?
 
मन में सुख है? जुटता है धन?
 
 
खिसक गई कंधों में कथड़ी
 
खिसक गई कंधों में कथड़ी
 
 
ठिठुर रहा अब सर्दी से तन,
 
ठिठुर रहा अब सर्दी से तन,
 
 
सोच रहा बस्‍ती का बनिया
 
सोच रहा बस्‍ती का बनिया
 
 
घोर विवशता का कारण!
 
घोर विवशता का कारण!
 
 
शहरी बनियों-सा वह भी उठ
 
शहरी बनियों-सा वह भी उठ
 
 
क्‍यों बन जाता नहीं महाजन?
 
क्‍यों बन जाता नहीं महाजन?
 
 
रोक दिए हैं किसने उसकी
 
रोक दिए हैं किसने उसकी
 
 
जीवन उन्‍नती के सब साधन?
 
जीवन उन्‍नती के सब साधन?
 
 
यह क्‍यों संभव नहीं
 
यह क्‍यों संभव नहीं
 
 
व्‍यवस्‍था में जग की कुछ हो परिवर्तन?
 
व्‍यवस्‍था में जग की कुछ हो परिवर्तन?
 
 
कर्म और गुण के समान ही
 
कर्म और गुण के समान ही
 
 
सकल आय-व्‍याय का हो वितरण?
 
सकल आय-व्‍याय का हो वितरण?
 
 
घुसे घरौंदे में मि के  
 
घुसे घरौंदे में मि के  
 
 
अपनी-अपनी सोच रहे जन,
 
अपनी-अपनी सोच रहे जन,
 
 
क्‍या ऐसा कुछ नहीं,
 
क्‍या ऐसा कुछ नहीं,
 
 
फूँक दे जो सबमें सामूहिक जीवन?
 
फूँक दे जो सबमें सामूहिक जीवन?
 
 
मिलकर जन निर्माण करे जग,
 
मिलकर जन निर्माण करे जग,
 
 
मिलकर भोग करें जीवन करे जीवन का,
 
मिलकर भोग करें जीवन करे जीवन का,
 
 
जन विमुक्‍त हो जन-शोषण से,
 
जन विमुक्‍त हो जन-शोषण से,
 
 
हो समाज अधिकारी धन का?
 
हो समाज अधिकारी धन का?
 
 
दरिद्रता पापों की जननी,
 
दरिद्रता पापों की जननी,
 
 
मिटे जनों के पाप, ताप, भय,
 
मिटे जनों के पाप, ताप, भय,
 
 
सुंदर हो अधिवास, वसन, तन,
 
सुंदर हो अधिवास, वसन, तन,
 
 
पशु पर मानव की हो जय?
 
पशु पर मानव की हो जय?
 
 
वक्ति नहीं, जग की परिपाटी
 
वक्ति नहीं, जग की परिपाटी
 
 
दोषी जन के दु:ख क्‍लेश की
 
दोषी जन के दु:ख क्‍लेश की
 
 
जन का श्रम जन में बँट जाए,
 
जन का श्रम जन में बँट जाए,
 
 
प्रजा सुखी हो देश देश की!
 
प्रजा सुखी हो देश देश की!
 
 
टूट गया वह स्‍वप्‍न वणिक का,
 
टूट गया वह स्‍वप्‍न वणिक का,
 
 
आई जब बुढि़या बेचारी,
 
आई जब बुढि़या बेचारी,
 
 
आध-पाव आटा लेने
 
आध-पाव आटा लेने
 
 
लो, लाला ने फिर डंडी मारी!
 
लो, लाला ने फिर डंडी मारी!
 
 
चीख उठा घुघ्‍घू डालों में
 
चीख उठा घुघ्‍घू डालों में
 
 
लोगों ने पट दिए द्वार पर,
 
लोगों ने पट दिए द्वार पर,
 
 
निगल रहा बस्‍ती को धीरे,
 
निगल रहा बस्‍ती को धीरे,
 
 
गाढ़ अलस निद्रा का अजगर!
 
गाढ़ अलस निद्रा का अजगर!
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12:28, 13 अक्टूबर 2009 के समय का अवतरण

सिमटा पंख साँझ की लाली
जा बैठी तरू अब शिखरों पर
ताम्रपर्ण पीपल से, शतमुख
झरते चंचल स्‍वर्णिम निझर!
ज्‍योति स्‍थंभ-सा धँस सरिता में
सूर्य क्षितीज पर होता ओझल
बृहद जिह्म ओझल केंचुल-सा
लगता चितकबरा गंगाजल!
धूपछाँह के रंग की रेती
अनिल ऊर्मियों से सर्पांकित
नील लहरियों में लोरित
पीला जल रजत जलद से बिंबित!
सिकता, सलिल, समीर सदा से,
स्‍नेह पाश में बँधे समुज्‍ज्‍वल,
अनिल पीघलकर सलि‍ल, सलिल
ज्‍यों गति द्रव खो बन गया लवोपल
शंख घट बज गया मंदिर में
लहरों में होता कंपन,
दीप शीखा-सा ज्‍वलित कलश
नभ में उठकर करता निराजन!
तट पर बगुलों-सी वृद्धाएँ
विधवाएँ जप ध्‍यान में मगन,
मंथर धारा में बहता
जिनका अदृश्‍य, गति अंतर-रोदन!
दूर तमस रेखाओं सी,
उड़ती पंखों सी-गति चित्रित
सोन खगों की पाँति
आर्द्र ध्‍वनि से निरव नभ करती मुखरित!
स्‍वर्ण चूर्ण-सी उड़ती गोरज
किरणों की बादल-सी जलकर,
सनन् तीर-सा जाता नभ में
ज्‍योतित पंखों कंठों का स्‍वर!
लौटे खग, गायें घर लौटीं
लौटे कृषक श्रांत श्‍लथ डग धर
छिपे गृह में म्‍लान चराचर
छाया भी हो गई अगोचर,
लौट पैंठ से व्‍यापारी भी
जाते घर, उस पार नाव पर,
ऊँटों, घोड़ों के संग बैठे
खाली बोरों पर, हुक्‍का भर!
जोड़ों की सुनी द्वभा में,
झूल रही निशि छाया छाया गहरी,
डूब रहे निष्‍प्रभ विषाद में
खेत, बाग, गृह, तरू, तट लहरी!
बिरहा गाते गाड़ी वाले,
भूँक-भूँकर लड़ते कूकर,
हुआँ-हुआँ करते सियार,
देते विषण्‍ण निशि बेला को स्‍वर!

माली की मँड़इ से उठ,
नभ के नीचे नभ-सी धूमाली
मंद पवन में तिरती
नीली रेशम की-सी हलकी जाली!
बत्‍ती जल दुकानों में
बैठे सब कस्‍बे के व्‍यापारी,
मौन मंद आभा में
हिम की ऊँध रही लंबी अधियारी!
धुआँ अधिक देती है
टिन की ढबरी, कम करती उजियाली,
मन से कढ़ अवसाद श्रांति
आँखों के आगे बुनती जाला!
छोटी-सी बस्‍ती के भीतर
लेन-देन के थोथे सपने
दीपक के मंडल में मिलकर
मँडराते घिर सुख-दुख अपने!
कँप-कँप उठते लौ के संग
कातर उर क्रंदन, मूक निराशा,
क्षीण ज्‍योति ने चुपके ज्‍यों
गोपन मन को दे दी हो भाषा!
लीन हो गई क्षण में बस्‍ती,
मिली खपरे के घर आँगन,
भूल गए लाला अपनी सुधी,
भूल गया सब ब्‍याज, मूलधन!
सकूची-सी परचून किराने की ढेरी
लग रही ही तुच्‍छतर,
इस निरव प्रदोष में आकुल
उमड़ रहा अंतर जग बाहर!
अनुभव करता लाला का मन,
छोटी हस्‍ती का सस्‍तापन,
जाग उठा उसमें मानव,
औ' असफल जीवन का उत्‍पीड़न!
दैन्‍य दुख अपमाल ग्‍लानि
चिर क्षुधित पिपासा, मृत अभिलाषा,
बिना आय की क्‍लांति बनी रही
उसके जीवन की परिभाषा!
जड़ अनाज के ढेर सदृश ही
वह दीन-भर बैठा गद्दी पर
बात-बात पर झूठ बोलता
कौड़ी-सी स्‍पर्धा में मर-मर!
फिर भी क्‍या कुटुंब पलता है?
रहते स्‍वच्‍छ सुधर सब परिजन?
बना पा रहा वह पक्‍का घर?
मन में सुख है? जुटता है धन?
खिसक गई कंधों में कथड़ी
ठिठुर रहा अब सर्दी से तन,
सोच रहा बस्‍ती का बनिया
घोर विवशता का कारण!
शहरी बनियों-सा वह भी उठ
क्‍यों बन जाता नहीं महाजन?
रोक दिए हैं किसने उसकी
जीवन उन्‍नती के सब साधन?
यह क्‍यों संभव नहीं
व्‍यवस्‍था में जग की कुछ हो परिवर्तन?
कर्म और गुण के समान ही
सकल आय-व्‍याय का हो वितरण?
घुसे घरौंदे में मि के
अपनी-अपनी सोच रहे जन,
क्‍या ऐसा कुछ नहीं,
फूँक दे जो सबमें सामूहिक जीवन?
मिलकर जन निर्माण करे जग,
मिलकर भोग करें जीवन करे जीवन का,
जन विमुक्‍त हो जन-शोषण से,
हो समाज अधिकारी धन का?
दरिद्रता पापों की जननी,
मिटे जनों के पाप, ताप, भय,
सुंदर हो अधिवास, वसन, तन,
पशु पर मानव की हो जय?
वक्ति नहीं, जग की परिपाटी
दोषी जन के दु:ख क्‍लेश की
जन का श्रम जन में बँट जाए,
प्रजा सुखी हो देश देश की!
टूट गया वह स्‍वप्‍न वणिक का,
आई जब बुढि़या बेचारी,
आध-पाव आटा लेने
लो, लाला ने फिर डंडी मारी!
चीख उठा घुघ्‍घू डालों में
लोगों ने पट दिए द्वार पर,
निगल रहा बस्‍ती को धीरे,
गाढ़ अलस निद्रा का अजगर!