भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"एक साँझ / कीर्ति चौधरी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
छो ("एक साँझ / कीर्ति चौधरी" सुरक्षित कर दिया ([edit=sysop] (indefinite) [move=sysop] (indefinite)))
 
(कोई अंतर नहीं)

22:59, 5 मई 2011 के समय का अवतरण

वृक्षों की लम्बी छायाएँ कुछ सिमट थमीं ।
धूप तनिक धौली हो,
पिछवाड़े बिरम गई ।
घासों में उरझ-उरझ,
किरणें सब श्याम हुईं ।
साखू-शहतूतों की डालों पर,
लौटे प्रवासी जब,
नीड़ों में किलक उठी,
नीड़ों में किलक उठी,
दिशि-दिशि में गूँज रमी ।
पच्छिम की राह बीच,
सुर्ख़ चटक फूलों पर,
कोई पर, कूलों पर,
पलकें समेट उधर
साँझ ने सलोना सुख हौले से टेक दिया।
एकाएक जलते चिराग़ों को
चुपके से जैसे किसी ने ही मंद किया ।
दुग्ध-धवल गोल-गोल खम्भों पर,
छत पर, चिकों पर,
वहाँ काँपती बरौनियों की परछाहीं बिखर गई ।
आह ! यह सलोनी, यह साँझ नई !

मैं तो प्रवासी हूँ :
ऊँचा यह बारह-खम्भिया महल,
औरों का ।
दुग्ध-धवल आँखों में,
अंजन-सी अँजी साँझ
कजरारी, बाँकी, कँटीली,
उस चितवन-सी सजी साँझ
औरों की ।
मेरी तो
छज्जों, दरवाज़ों,
झरोखों, मुँडेरों पर
मँडराते,
घुमड़-घुमड़ भर जाते,
धुएँ बीच,
घुटती, सहमती, उदास साँझ
और--और--और वह शुक्रतारा !
सुबह तक जिस पर अँधियारे की परत जमी ।