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"शबरी के बेर / अनिल विभाकर" के अवतरणों में अंतर
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23:16, 16 मई 2011 के समय का अवतरण
जो जानते हैं शबरी के जूठे बेर का स्वाद
उन्हें कभी नहीं होता भरम
वे ख़ूब जानते हैं कि क्या होता है धरम
क्या होता है करम
जो नहीं खींचती अपनी लकीर
वह रुक्मिणी बनती है
जो खींचती है, वह राधा
मीरा भी बनती है वह
उसे कभी नहीं होता धूल और धरम का भरम
राधा बेहिचक दे देती है अपनी चरण-धूलि
पीड़ा से परेशान कृष्ण के लिए
मीरा बेहिचक पी लेती है प्याला ज़हर का
रुक्मिणी के दर से लौट जाते हैं नारद खाली हाथ
धर्म के भरोसे बैठी रुक्मिणी
मौक़ा मिलने पर भी नहीं समझ पाती कदम्ब की भाषा
लगता है एकतारा बजाने के बाद भी
भूल गए थे नारद शबरी को ।