भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"दाना चुगते मुरगे / उमेश चौहान" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
 
{{KKGlobal}}
 
{{KKGlobal}}
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
|रचनाकार=उमेश चौहान
+
|रचनाकार=उमेश चौहान }}
|संग्रह=दाना चुगते मुरगे / उमेश चौहान
+
{{KKPustak
 +
|चित्र=.jpg
 +
|नाम= दाना चुगते मुरगे
 +
|रचनाकार=[[उमेश चौहान]]
 +
|प्रकाशक= 
 +
|वर्ष= 2004
 +
|भाषा=हिन्दी
 +
|विषय=कविता संग्रह
 +
|शैली=--
 +
|पृष्ठ=
 +
|ISBN=--
 +
|विविध=--
 
}}
 
}}
{{KKCatKavita‎}}
+
*[[दाना चुगते मुरगे/उमेश चौहान]]
<poem>
+
*[[युद्ध और बच्चे/उमेश चौहान]]
'''दाना चुगते मुरगे'''
+
*[[बौनों के देश में/उमेश चौहान]]
 
+
*[[ / उमेश चौहान]]
कुछ मुरगे दाना चुगने निकले
+
*[[ / उमेश चौहान]]
सामने बिखरे दाने
+
*[[ / उमेश चौहान]]
बाँट लिये उन्होंने अपनी-अपनी सुविधानुसार
+
*[[ / उमेश चौहान]]
और चुगने लगे जी भरकर
+
*[[ / उमेश चौहान]]
जैसे उन्हें सर्वाधिकार मिल गया था
+
मनचाहे तरीके से दाने चुगने का
+
मुझे अपना देश याद आया ।
+
+
थोड़ी देर में एक मुरगे को लगा
+
जो दाने वह चुग रहा है
+
वे शायद घटिया हैं
+
दूसरे दानों के मुकाबले
+
उसने शोर मचाया कि उसे भी
+
कुछ अच्छे दाने मिलने चाहिए
+
सबको चुपचाप अच्छे दाने मिलते रहें
+
इसलिए समझौता हुआ
+
उसे भी दे दिए गए कुछ अच्छे दाने चुगने के लिए
+
मुझे अपने देश की राजनीति याद आई ।
+
+
चुगते-चुगते एक मुरगे ने
+
दूसरे मुरगे के सामने का दाना खा लिया
+
फिर क्या था
+
लड़ने लगे दोनों मुरगे
+
अपने-अपने क्षेत्राधिकार को लेकर
+
अंत में उनके मुखिया ने निष्कर्ष निकाला
+
ग़लती शायद दाने की ही थी
+
उसे नहीं पता था कि
+
किस मुरगे के सामने उसे होना चाहिए था
+
और फिर शांति से चुगने लगे मुरगे अपने-अपने दाने
+
मुझे याद आई साझा सरकारों की ।
+
   
+
दाने कम होते देखकर  
+
और दानों की माँग की मुरगों ने 
+
पेट भरा था उनका  
+
फिर भी दानों का लालच विवश किए था  
+
यह जानकर कि शायद और दाने न मिल सकें 
+
सब चुग लेना चाहते थे अधिकाधिक बचे-खुचे दाने ।
+
दानों की कमी संघर्ष का कारण बनने लगी 
+
कुछ मुरगों के सामने बचे थे बस ख़राब ही दाने ।
+
अच्छे दानों पर एकाधिकार जमाने के लिए 
+
चोंचों से वार होने लगे 
+
एक दूसरे के ख़ून के प्यासे हो चले थे मुरगे 
+
मुझे याद आई लखनऊ, पटना, दिल्ली की ।
+
+
कुछ मुरगे होशियार निकले 
+
दाने चुगने का मज़ा ले चुके हैं वे 
+
समझ चुके हैं कि दाने तो फ़सल से ही मिलते हैं । 
+
फिर फ़सल ही खाने का मज़ा क्यों न लिया जाए 
+
ऐसे मुरगे खेतों की तरफ़ बढ़ चुके हैं 
+
फ़सलों को खाने में रम चुके हैं । 
+
उन्हें इसकी चिंता भी नहीं 
+
कि अब उनके साथियों को दाने कैसे मिलेंगे 
+
और अंततोगत्वा उन्हें भी फ़सलें कैसे मिलेंगी
+
 
+
फ़सलें ख़त्म होती जा रही हैं । 
+
मुरगे फिर लड़ने के लिए तैयार हो रहे हैं 
+
मुझे अपने देश के भविष्य की चिंता हो रही है ।
+
</poem>
+

07:45, 20 मई 2011 के समय का अवतरण

दाना चुगते मुरगे
रचनाकार उमेश चौहान
प्रकाशक
वर्ष 2004
भाषा हिन्दी
विषय कविता संग्रह
विधा
पृष्ठ
ISBN
विविध
इस पन्ने पर दी गई रचनाओं को विश्व भर के स्वयंसेवी योगदानकर्ताओं ने भिन्न-भिन्न स्रोतों का प्रयोग कर कविता कोश में संकलित किया है। ऊपर दी गई प्रकाशक संबंधी जानकारी छपी हुई पुस्तक खरीदने हेतु आपकी सहायता के लिये दी गई है।