"कितनी बार मेरे प्रभु / कुमार रवींद्र" के अवतरणों में अंतर
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कितनी बार | कितनी बार |
20:04, 20 मई 2011 के समय का अवतरण
कितनी बार
तुम आए, मेरे प्रभु !
और हर बार मैंने तुम्हें नकार दिया ।
न तुम्हारे आने की कोई सीमा थी
और न मेरे नकारने की ।
कितने-कितने रूप तुमने धरे
कि मैं पहचान लूँ
कि तुम आसपास ही हो
किन्तु ...
तुम्हारा धैर्य
और मेरे अंधेपन
दोनों ही अद्वितीय थे ।
तुम आए
वसंत के पहले-पहले एकांत बनकर -
सूरज की रश्मियों में
उस दिन
जो धुला-धुला दुलार था
वह तुम ही तो थे ।
तमने छुआ तुलसी के नए अंकुर को
तुलसीदल हरे हो गए;
जड़ों में समां गए तुम तुलसी के
एक नये पर्व की पहचान बनकर;
गुलाब की क्यारियों में तुम
हवा की मस्ती बन घूमे
गंधों को बार-बार छुआ
उन्हें छेड़ा
मैंने गुलाब का लाजभरा टहकना देखा;
उसका सुरभित यौवन
उसका अचरज-सा सौन्दर्य
मेरी आँखों में समाया
किन्तु उसमें तुम्हें पहचान न सका, मेरे प्रभु !
तोडकर अपने बटन-होल में लगाते समय
गुलाब का थरथराना
मेरी उँगलियों ने जाना
किन्तु वह तुम थे यह मैं न जान सका ।
तुम्हारा धैर्य अप्रतिम था ।
तुम फिर आए
कनखियों के मादक संकेत बनकर
सुनहरे कोहरे से मन को लपेटती
इच्छाओं की सुगबुग में
तुम्हारी ही आहट थी
मैं न जान सका
और जिस क्षण मेरी बाँहों ने
कमल-वन पर घिरे
मेघों के गुदगुदे विस्तार को बाँधा
साँसों ने कमल-पंखुरियों के परिमल को
अधैर्य से बार-बार खोजा
और मेरी आप्यायित जिज्ञासा
अतृप्ति के जंगलों में डूबी
उस क्षण भी मैं न जान सका
ये सारे स्थल तुम्हारे ही थे ।
बार-बार तुमसे भेंट होने के वे क्षण
अपने में डूबे
तुम्हें न जान सके, मेरे प्रभु !
आज
पतझर से घिरी वनखंडी के
सूने आवेश में थरथर काँपती इस देह में
तुम्हारा फिर अवतरण होगा
यह भी मैं कहाँ जान पाया था ।
उड़ती-झरती पत्तियों को विदा करती
शाखाओं की उँगलियों में
जो वेदना
चिताओं के धुएँ-सी उड़ती धूल में
जो अतृप्त याचना
आज भी है
वह क्या तुम्हीं हो
यह प्रश्न करते मुझे लाज नहीं आती
क्योंकि मेरी आँखों की
मेरी साँसों की जो थकी-थकी भाषा
तुम्हें परिभाषित करना चाहती है
उसका विश्वास नहीं रह गया है, मेरे प्रभु !
तुम्हारी भाषाएँ अनेक हैं, मेरे प्रभु !
और मेरी जिज्ञासाएँ हर बार वही ।
आज भी
तुलसीचौरे पर जले दीये की लौ में,
गुलाब के गन्धमादन से उठते
मादक प्रश्नों के ज्वार में,
आँखों से आँखों तक बहती
सपनों की स्रोतस्विनी में,
वनों में गूँजते एकाकी पवनों में,
बर्फीली शिलाओं की गोद में फैले
सूर्य के आगमनों अथवा प्रस्थानों में
बार-बार तुम आते हो
और मैं तुम्हें नकारते
लज्जित नहीं होता -
ऐसा ही है मेरा-तुम्हारा संबंध, मेरे प्रभु !