भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"विकल्प की तलाश / उमेश चौहान" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=उमेश चौहान |संग्रह=जिन्हें डर नहीं लगता / उमेश च…)
 
 
पंक्ति 6: पंक्ति 6:
 
{{KKCatKavita‎}}
 
{{KKCatKavita‎}}
 
<poem>
 
<poem>
'''विकल्प की तलाश'''
 
 
 
वह आई
 
वह आई
 
हथेलियाँ पसारे
 
हथेलियाँ पसारे
 
गड़ा दी आँखें उसने
 
गड़ा दी आँखें उसने
 
कार के डार्क शीशे पर
 
कार के डार्क शीशे पर
याचना में होंठ काँपे
+
याचना में होंठ काँपे
‘पेट भूखा है, सर!’
+
‘पेट भूखा है, सर !’
  
 
एक मन किया
 
एक मन किया
दे दूँ दो-चार रूपये
+
दे दूँ दो-चार रूपए
हाथ खुद खुद सरक गया जेब की तरफ
+
हाथ ख़ुद ख़ुद सरक गया जेब की तरफ़
 
तभी दूसरा विवेक जागा,
 
तभी दूसरा विवेक जागा,
 
मत दो  कुछ भी  
 
मत दो  कुछ भी  
नही तो भीख माँगते ही गुजारेगी सारी ज़िन्दगी।
+
नही तो भीख माँगते ही गुज़ारेगी सारी ज़िन्दगी ।
  
 
मन किया पूछ लूँ  
 
मन किया पूछ लूँ  
‘कुछ काम क्यों नहीं करती?
+
‘कुछ काम क्यों नहीं करती ?
चलेगी मेरे साथ?’
+
चलेगी मेरे साथ ?’
पर मुहँ से न निकल सकी यह बात
+
पर मुँह से न निकल सकी यह बात
 
क्योंकि डर था कि
 
क्योंकि डर था कि
 
उसमें छिपी हो सकती है
 
उसमें छिपी हो सकती है
किन्हीं अनर्थों की सौगात!
+
किन्हीं अनर्थों की सौगात !
टचानक ग्रीन सिगनल होते ही
+
अचानक ग्रीन-सिगनल होते ही
छिटक गई वह फुटपाथ की तरफ
+
छिटक गई वह फुटपाथ की तरफ़
 
उसके पास विकल्पों की तलाश का  
 
उसके पास विकल्पों की तलाश का  
 
इतना ही समय था
 
इतना ही समय था
  
 
चौराहे पर लाल सिगनल के ग्रीन होने तक
 
चौराहे पर लाल सिगनल के ग्रीन होने तक
मेरे पास उसके  लिए सोचने का
+
मेरे पास भी उसके  लिए सोचने का
 
इतना ही समय था शायद,
 
इतना ही समय था शायद,
 
उसके सामने कोई विकल्प रखने से पहले ही  
 
उसके सामने कोई विकल्प रखने से पहले ही  
रोज़ वहाँ से बढ़ जाता था मैं आगे।
+
रोज़ वहाँ से बढ़ जाता था मैं आगे ।
 
+
  
 
घर की बेटी की तरह
 
घर की बेटी की तरह
 
बड़ी हो रही थी वह भी सड़क पर
 
बड़ी हो रही थी वह भी सड़क पर
बढ़ रही थीं उसकी जरूरतें भी
+
बढ़ रही थीं उसकी ज़रूरतें भी
पर सिकुड़ते जा रहे थे दिन-बदिन उसके विकल्प
+
पर सिकुड़ते जा रहे थे दिन-ब-दिन उसके विकल्प
  
 
उसके आस-पास ही देख रखे थे मैंने
 
उसके आस-पास ही देख रखे थे मैंने
पंक्ति 50: पंक्ति 47:
 
भिक्षाटत ही उनके पास एकमात्र विकल्प था
 
भिक्षाटत ही उनके पास एकमात्र विकल्प था
 
क्योंकि इस देश के पास उनके लिए
 
क्योंकि इस देश के पास उनके लिए
कोई अन्य विकल्प तलाशने की फुरसत ही न थी।
+
कोई अन्य विकल्प तलाशने की फ़ुरसत ही न थी ।
 
+
 
</poem>
 
</poem>

03:14, 22 मई 2011 के समय का अवतरण

वह आई
हथेलियाँ पसारे
गड़ा दी आँखें उसने
कार के डार्क शीशे पर
याचना में होंठ काँपे
‘पेट भूखा है, सर !’

एक मन किया
दे दूँ दो-चार रूपए
हाथ ख़ुद ब ख़ुद सरक गया जेब की तरफ़
तभी दूसरा विवेक जागा,
मत दो कुछ भी
नही तो भीख माँगते ही गुज़ारेगी सारी ज़िन्दगी ।

मन किया पूछ लूँ
‘कुछ काम क्यों नहीं करती ?
चलेगी मेरे साथ ?’
पर मुँह से न निकल सकी यह बात
क्योंकि डर था कि
उसमें छिपी हो सकती है
किन्हीं अनर्थों की सौगात !
अचानक ग्रीन-सिगनल होते ही
छिटक गई वह फुटपाथ की तरफ़
उसके पास विकल्पों की तलाश का
इतना ही समय था

चौराहे पर लाल सिगनल के ग्रीन होने तक
मेरे पास भी उसके लिए सोचने का
इतना ही समय था शायद,
उसके सामने कोई विकल्प रखने से पहले ही
रोज़ वहाँ से बढ़ जाता था मैं आगे ।

घर की बेटी की तरह
बड़ी हो रही थी वह भी सड़क पर
बढ़ रही थीं उसकी ज़रूरतें भी
पर सिकुड़ते जा रहे थे दिन-ब-दिन उसके विकल्प

उसके आस-पास ही देख रखे थे मैंने
उसकी माँ व दादी की भी उम्र के चेहरे
भिक्षाटत ही उनके पास एकमात्र विकल्प था
क्योंकि इस देश के पास उनके लिए
कोई अन्य विकल्प तलाशने की फ़ुरसत ही न थी ।