"हिन्दुस्तान की हालत / त्रिपुरारि कुमार शर्मा" के अवतरणों में अंतर
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एक चीख सुनाई देती है | एक चीख सुनाई देती है | ||
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हिन्दुस्तान के हाथों में मेरी सोच का गला है | हिन्दुस्तान के हाथों में मेरी सोच का गला है | ||
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गले से साँस लटकती है ‘पेंडुलम’ की तरह | गले से साँस लटकती है ‘पेंडुलम’ की तरह | ||
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आवाज़ की चमक बढ़ सी गई है | आवाज़ की चमक बढ़ सी गई है | ||
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लहू के साथ-साथ बहती है गरीबी | लहू के साथ-साथ बहती है गरीबी | ||
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इस तरह गिरा हूँ चाँद से नीचे | इस तरह गिरा हूँ चाँद से नीचे | ||
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केले के छिलके पर जैसे पाँव आ जाये | केले के छिलके पर जैसे पाँव आ जाये | ||
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देखा है जब कभी आसमान की तरफ | देखा है जब कभी आसमान की तरफ | ||
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गीली-सी धूप छन कर पलकों पे रह गई | गीली-सी धूप छन कर पलकों पे रह गई | ||
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जिस्म छिल गया सूखा-सा अंधेरा | जिस्म छिल गया सूखा-सा अंधेरा | ||
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और आँखों से रूह छलक आई | और आँखों से रूह छलक आई | ||
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हवाओं ने ओढ़ ली आतंक की चादर | हवाओं ने ओढ़ ली आतंक की चादर | ||
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अपनी ही गोद में बैठी है दिशाएँ | अपनी ही गोद में बैठी है दिशाएँ | ||
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पाला है आज तक जिस मटमैली मिट्टी ने | पाला है आज तक जिस मटमैली मिट्टी ने | ||
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क्षितिज के उपर बिखरी पड़ी है | क्षितिज के उपर बिखरी पड़ी है | ||
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सारे सन्नाटे वाचाल हो गये हैं | सारे सन्नाटे वाचाल हो गये हैं | ||
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कट गये शायद जवान इच्छाओं के | कट गये शायद जवान इच्छाओं के | ||
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आहटें कह्ती हैं आज़ाद हूँ | आहटें कह्ती हैं आज़ाद हूँ | ||
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चुभते हैं बार-बार नाखून बन्दिशों के | चुभते हैं बार-बार नाखून बन्दिशों के | ||
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पेड़ भी अब तो खाने लगे हैं फल | पेड़ भी अब तो खाने लगे हैं फल | ||
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और नदी अपना पीने लगी है जल | और नदी अपना पीने लगी है जल | ||
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कमजोर हो गई है यादाश्त समय की | कमजोर हो गई है यादाश्त समय की | ||
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लम्हों का गुच्छा पक-सा गया है | लम्हों का गुच्छा पक-सा गया है | ||
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कुछ परतें हटाता हूँ जब उम्र से अपनी | कुछ परतें हटाता हूँ जब उम्र से अपनी | ||
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तो भीग जाती है उम्मीद की बूँदें | तो भीग जाती है उम्मीद की बूँदें | ||
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कभी तो सुबह छ्पेगी रात की स्याही से | कभी तो सुबह छ्पेगी रात की स्याही से | ||
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जैसे दिन की सतह पर शाम उगती है | जैसे दिन की सतह पर शाम उगती है |
23:09, 24 मई 2011 का अवतरण
एक चीख सुनाई देती है
हिन्दुस्तान के हाथों में मेरी सोच का गला है
गले से साँस लटकती है ‘पेंडुलम’ की तरह
आवाज़ की चमक बढ़ सी गई है
लहू के साथ-साथ बहती है गरीबी
इस तरह गिरा हूँ चाँद से नीचे
केले के छिलके पर जैसे पाँव आ जाये
देखा है जब कभी आसमान की तरफ
गीली-सी धूप छन कर पलकों पे रह गई
जिस्म छिल गया सूखा-सा अंधेरा
और आँखों से रूह छलक आई
हवाओं ने ओढ़ ली आतंक की चादर
अपनी ही गोद में बैठी है दिशाएँ
पाला है आज तक जिस मटमैली मिट्टी ने
क्षितिज के उपर बिखरी पड़ी है
सारे सन्नाटे वाचाल हो गये हैं
कट गये शायद जवान इच्छाओं के
आहटें कह्ती हैं आज़ाद हूँ
चुभते हैं बार-बार नाखून बन्दिशों के
पेड़ भी अब तो खाने लगे हैं फल
और नदी अपना पीने लगी है जल
कमजोर हो गई है यादाश्त समय की
लम्हों का गुच्छा पक-सा गया है
कुछ परतें हटाता हूँ जब उम्र से अपनी
तो भीग जाती है उम्मीद की बूँदें
कभी तो सुबह छ्पेगी रात की स्याही से
जैसे दिन की सतह पर शाम उगती है