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राग केदारा

रामहि नीके कै निरखि, सुनैनी !
मनसहुँ अगम समुझि, यह अवसरु कत सकुचति, पिकबैनी ||

बड़े भाग मख-भूमि प्रगट भई सीय सुमङ्गल-ऐनी |
जा कारन लोचन-गोचर भै मूरति सब सुखदैनी ||

कुलगुर-तियके मधुर बचन सुनि जनक-जुबति मति-पैनी |
तुलसी सिथिल देह-सुधि-बुधि करि सहज सनेह-बिषैनी ||