"जवाब-ए-शिकवा / इक़बाल" के अवतरणों में अंतर
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आ गई आग की चुटकी को भी परवाज है क्या ? | आ गई आग की चुटकी को भी परवाज है क्या ? | ||
− | इस क़दर शोख के अल्लाह | + | इस क़दर शोख के अल्लाह से भी बरहम है । |
− | + | था जो मस्जूद मलाएक ये वही आदम है | |
− | आलिम ए गैर है सामां ए रूजे कम है | + | आलिम ए गैर है सामां ए रूजे कम है । |
− | हाँ मगर | + | हाँ मगर अजीज़ के असरार से मरहम है । |
एश्क ए बेताब से लबरेज़ है पैमाना तेरा | एश्क ए बेताब से लबरेज़ है पैमाना तेरा |
10:07, 11 जून 2011 के समय का अवतरण
टिप्पणी: जवाब ए शिकवा १९१२ में लिखी गई थी जो १९०९ में अलामा इक़बाल द्वारा लिखी पुस्तक शिकवा का जवाब है । 'शिकवा' में उन्होंने अल्लाह से मुसलमानों की स्थिति के बारे में शिकायत की थी और इसकी वजह के कई सवाल पूछे थे । 'जवाब-ए-शिकवा' में उन्होंने इन सवालों के जवाब देने की कोशिश की है ।
दिल से जो बात निकलती है असर रखती है ।
पर नहीं, ताकत-ए-परवाज़ मगर रखती है ।
क़दसी अलासल है, रफ़ात पे नज़र रखती है ।
ख़ाक से से उठती है गर्दू पे गुज़र रखती है ।
इश्क था फ़ितनागर व सरकश व चालाक मेरा ।
आसमान चीर गया नाला-ए-बेबाक मेरा ।
पीर ए गरदू ने कहा सुन के, कहीं है कोई
बोले सयादे, रस अर्श बर ईँ है कोई ।
चाँद कहता था नहीं अहल-ए-ज़मीं <ref>जमीन पर रहने वाला</ref> है कोई ।
कहकशाँ कहती थी पोशीदा यहीं है कोई ।
कुछ जो समझा मेरे शकू-ए-कू तो रिज़्वान समझा ।
मुझे जन्नत से निकाला हुआ इंसान समझा ।
थी फ़रिश्तों को भी ये हैरत कि ये आवाज़ क्या है?
अर्श<ref>काँटा</ref> डालों पे भी खिलता नहीं ये राज़ क्या है?
तासरे-अर्श भी इंसान की तगूताज़ है क्या ?
आ गई आग की चुटकी को भी परवाज है क्या ?
इस क़दर शोख के अल्लाह से भी बरहम है ।
था जो मस्जूद मलाएक ये वही आदम है
आलिम ए गैर है सामां ए रूजे कम है ।
हाँ मगर अजीज़ के असरार से मरहम है ।
एश्क ए बेताब से लबरेज़ है पैमाना तेरा
किस क़दर शोख जबां है दीवाना तेरा
हम सुखन कर दिया बंदों
राह दिखलाएँ किसे रहरव-ए-मंज़िल ही नहीं
जिससे तामीर हो आदम की ये वो दिल ही नहीं
ढूँञने वालों को दुनिया नई देते है
उम्मती
बुत शिकन उठ गए, बाक़ी जो रहे बुतगर है
ङरम ए काबा नया, बुत नए तुम भी नए
वो भी दिन थे
जो मुसलमान था अल्लाह का सौदाई था
किस क़दर तुम पे
हम से कब प्यार है हाँ नींद तुम्हें प्यारे
सफ़ा-ए-दहर
थे भावा व तुम्हारे ही
हाथ पर हाथ धरे
क्या कहा दहर-ए-मुसलमां
शिकवा अगर करे
तुम में हूरों का कोई चाहने वाला ही नहीं
एक ही सब का नबी, दीन भी दीवान भी एक
कुछ बड़ी बात थी होते मुसलमान भी एक
किसकी आँखों में समाया है दयार-ए-अगियार
मसादि में
रहमतें रोजा जो करते है तो ग़रीब
नाम लेता है अगर कोई हमारा तो ग़रीब
पुख्ता खयाली न रहीं
शोला
रूह-ए-बिलाली न रहीं
मस्जिदए कि नवाजी न रहे
सहिब-ए-अल्ताफ-ए हिजाज़ी न रहे ।
(कविता अपूर्ण और अशुद्ध है । सहयोग अपेक्षित है । )
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