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"निराशा की कविता / मंगलेश डबराल" के अवतरणों में अंतर

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बहुत कुछ करते हुए भी जब यह लगे कि हम कुछ नहीं कर पाये
 
बहुत कुछ करते हुए भी जब यह लगे कि हम कुछ नहीं कर पाये
 
 
तो उसे निराशा कहा जाता है. निराश आदमी को लोग दूर से ही
 
तो उसे निराशा कहा जाता है. निराश आदमी को लोग दूर से ही
 
 
सलाम करते हैं. अपनी निराशा को हम इस तरह बचाये रखते हैं जैसे
 
सलाम करते हैं. अपनी निराशा को हम इस तरह बचाये रखते हैं जैसे
 
 
वही सबसे बड़ी ख़ुशी हो. हमारी आँखों के सामने संसार पर धूल जमती
 
वही सबसे बड़ी ख़ुशी हो. हमारी आँखों के सामने संसार पर धूल जमती
 
 
है. चिड़ियाँ फटे हुए काग़ज़ों की तरह उड़ती दिखती हैं. संगीत भी  
 
है. चिड़ियाँ फटे हुए काग़ज़ों की तरह उड़ती दिखती हैं. संगीत भी  
 
 
हमें उदार नहीं बना पाता. हमें हमेशा कुछ बेसुरा बजता हुआ सुनाई  
 
हमें उदार नहीं बना पाता. हमें हमेशा कुछ बेसुरा बजता हुआ सुनाई  
 
 
देता है. रंगों में हमें ख़ून क धब्बे और हत्याओं के बाद के दृश्य दिखते  
 
देता है. रंगों में हमें ख़ून क धब्बे और हत्याओं के बाद के दृश्य दिखते  
 
 
हैं. शब्द हमारे काबू में नहीं होते और प्रेम मनुष्य मात्र के वश के
 
हैं. शब्द हमारे काबू में नहीं होते और प्रेम मनुष्य मात्र के वश के
 
 
बाहर लगता है.
 
बाहर लगता है.
 
  
 
निराशा में हम कहते हैं निराशा हमें रोटी दो. हमें दो चार क़दम चलने
 
निराशा में हम कहते हैं निराशा हमें रोटी दो. हमें दो चार क़दम चलने
 
 
की सामर्थ्य दो.
 
की सामर्थ्य दो.
 
  
 
(रचनाकाल :1990)
 
(रचनाकाल :1990)
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17:43, 12 अप्रैल 2012 के समय का अवतरण

बहुत कुछ करते हुए भी जब यह लगे कि हम कुछ नहीं कर पाये
तो उसे निराशा कहा जाता है. निराश आदमी को लोग दूर से ही
सलाम करते हैं. अपनी निराशा को हम इस तरह बचाये रखते हैं जैसे
वही सबसे बड़ी ख़ुशी हो. हमारी आँखों के सामने संसार पर धूल जमती
है. चिड़ियाँ फटे हुए काग़ज़ों की तरह उड़ती दिखती हैं. संगीत भी
हमें उदार नहीं बना पाता. हमें हमेशा कुछ बेसुरा बजता हुआ सुनाई
देता है. रंगों में हमें ख़ून क धब्बे और हत्याओं के बाद के दृश्य दिखते
हैं. शब्द हमारे काबू में नहीं होते और प्रेम मनुष्य मात्र के वश के
बाहर लगता है.

निराशा में हम कहते हैं निराशा हमें रोटी दो. हमें दो चार क़दम चलने
की सामर्थ्य दो.

(रचनाकाल :1990)