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"जो बन संवर के वो एक माहरू निकलता है / आदिल रशीद" के अवतरणों में अंतर
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ये चाँद रात ही दीदार का वसीला है | ये चाँद रात ही दीदार का वसीला है |
19:45, 1 अगस्त 2011 का अवतरण
जो बन संवर के वो एक माहरू <ref> चान्द जैसे चेहरा वाला</ref>निकलता है
तो हर ज़बान से बस अल्लाह हू <ref> हे भगवान</ref>निकलता है
ये चाँद रात ही दीदार का वसीला है
बरोजे ईद ही वो खूबरू निकलता है
हलाल रिज्क का मतलब किसान से पूछो
पसीना बन के बदन से लहू निकलता है
ज़मीन और मुक़द्दर की एक है फितरत
के जो भी बोया वो ही हुबहू निकलता है
ये चाँद रात ही दीदार का वसीला है
बरोजे ईद ही वो खूबरू निकलता है
तेरे बग़ैर गुलिस्ताँ को क्या हुआ आदिल
जो गुल निकलता है बे रंगों बू निकलता है
<ref> </ref>
शब्दार्थ
<references/>