भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"पेड़ चलते नहीं / सुरेश यादव" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
पंक्ति 7: पंक्ति 7:
 
पेड़ ज़मीन पर चलते नहीं  
 
पेड़ ज़मीन पर चलते नहीं  
 
देखा भी नहीं किसी ने  
 
देखा भी नहीं किसी ने  
पेड़ों को ज़मीन पार चलते हुए  
+
पेड़ों को ज़मीन पर चलते हुए
 +
 
धूप हो कड़ी और थकन हो अगर  
 
धूप हो कड़ी और थकन हो अगर  
 
आस पास मिल जाते हैं पेड़ -  
 
आस पास मिल जाते हैं पेड़ -  

09:59, 12 अगस्त 2011 का अवतरण

पेड़ ज़मीन पर चलते नहीं
देखा भी नहीं किसी ने
पेड़ों को ज़मीन पर चलते हुए
 
धूप हो कड़ी और थकन हो अगर
आस पास मिल जाते हैं पेड़ -
सिर के ऊपरे पिता के हाथ की तरह
कहीं माँ की गोद की तेरह
आँखें नहीं होती हैं - पेड़ों की
ने होते हैं पेड़ों के कान
वक्त के हाथों टूटते आदमी की आवाज़
सुनते हैं पेड़, फिर भी
आँखों देखे इतिहास को बताते हैं पेड़
अपनी देह पर उतार कर
बूढ़े दादा के माथे की झुर्रिओं की तरह
जीत का सन्देश देते हैं पेड़
नर्म जड़ें निकलती हैं जब
चट्टानें तोड़ कर
पेड़ों की अपनी भाषा होती है
धर्म का प्रचार करते हैं पेड़
फूलों में रंग औरर खुशबू भर कर
गूंगे तो होती नहीं हैं पेड़
बोलते हैं, बतियाते हैं
बसंत हो या पततझर
हरर मौसम का गीतत गाते हैं पेड़
ककभी कोपलों में खिलकर
कभी सूखे पत्तों में झर ककर।