"रचना-प्रक्रिया / भारत यायावर" के अवतरणों में अंतर
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+ | फिर रात भर इस तरह | ||
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+ | अपनी ही आकृति | ||
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+ | जो जितनी ही जानी-पहचानी है | ||
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+ | उतनी ही अजनबी | ||
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+ | उस अजनबी से | ||
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+ | आत्मीय होने के लिए | ||
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+ | कविताएँ लिखता हूँ | ||
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+ | लिखता ही रहता हूँ |
00:48, 1 अगस्त 2007 के समय का अवतरण
मन के सिरहाने
सजा कर रखी हैं कितनी किताबें !
कमरे में एक पतली मोमबत्ती
पीले प्रकाश में
पिघल रही है
धीरे-धीरे
मेरे चेहरे पर
रोशनी की तिरछी लकीरें
मेरी आँखें जल रही हैं
तीव्र आवेग में
इसी समय
प्रवेश करती है--
एक काली छाया
खुले हुए बाल
धरती में लोट-पोट
उसका चेहरा नहीं दीखता
मैं उठ कर बैठ जाता हूँ
आँखों पर ज़ोर देकर देखता हूँ
कौन है वह?
मुझे जीवनानंद दास की एक कविता
याद आती है और
मन के सिरहाने रखी
पुस्तकों के पन्ने खुल कर
फड़फड़ाने लगते हैं
एक गहरी खामोशी है
बाहर और भीतर
एक भी शब्द
कहीं झंकृत नहीं होता
एक भी ध्वनि
कहीं नहीं होती
सिर्फ़ एक गहरी ख़ामोशी है
बाहर और भीतर
कौन है वह ?--
कोई भीतर से चीख कर पूछता है
पर होंठ
सिर्फ़ हिल कर रह जाते हैं
और ऎसे में
बुझ जाती है मोमबत्ती
लुप्त हो जाता है
जीर्ण पीला प्रकाश
उठता हूँ और
बाहर की ओर चलता हूँ
एक धुँधली वीरानगी से
लिपटे खड़े हैं पेड़
रास्ते जाने-पहचाने हैं
फिर भी अजनबी!
किसके घर जाऊँ?
किसे जगाऊँ?
इस मध्य रात्रि में
छटपटाती हुई आत्मा लिए !
कौन मेरी व्याकुलता भरी पुकार पर
दौड़ा आएगा?
अजीब-सी कश्म-कश
अजीब-सी रात
अजीबो-गरीब है यह मनोदशा
और यह दुनिया
एक स्वप्न-सा लगता है
यह चलना-फिरना
अपने-आप पर रोना
और हँसना
सभी कर्म-कुकर्म करना
फिर रात भर इस तरह
ख़ुद का धीरे-धीरे खुलना
अपने को इतनी भिन्न
आकृतियों में पाना
आश्चर्य !
मैं लौट आता हूँ कमरे में
पड़ जाता हूँ फिर बिस्तर पर
अंधेरे में अब साफ़-साफ़
पहचान पा रहा हूँ
अपनी ही आकृति
जो जितनी ही जानी-पहचानी है
उतनी ही अजनबी
उस अजनबी से
आत्मीय होने के लिए
कविताएँ लिखता हूँ
लिखता ही रहता हूँ