"पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / द्वादश सर्ग / पृष्ठ - १" के अवतरणों में अंतर
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+ | प्रलय-प्रपंच | ||
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+ | (1) | ||
+ | जल को थल होते देखा। | ||
+ | थल है जलमय हो जाता। | ||
+ | है गत्ता जहाँ पर गहरा। | ||
+ | था गिरिवर वहाँ दिखाता॥1॥ | ||
+ | वे द्वीप जहाँ सुरपुर-से। | ||
+ | बहु सुन्दर नगर दिखाते। | ||
+ | हैं उदधिक-गर्भगत अधुना। | ||
+ | हैं पता न उनका पाते॥2॥ | ||
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+ | नन्दन-वन-से दृग-रंजन। | ||
+ | बहु वन बन गये मरुस्थल। | ||
+ | हो गये मरुस्थल कितने। | ||
+ | दुरम-वलित शस्य-से श्यामल॥3॥ | ||
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+ | प्रज्वाल-वमन-रत पर्वत। | ||
+ | बनता है दिव्य हिमाचल। | ||
+ | है अग्नि-गर्भ हो जाता। | ||
+ | हिमराशि-विसिद्बिचत अद्बचल॥4॥ | ||
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+ | जो नगर अपर अलका था। | ||
+ | थी जहाँ खिंची सुख-खा। | ||
+ | उसको क्षिति हिलते क्षण में। | ||
+ | अन्तर्हित होते देखा॥5॥ | ||
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+ | निधिकता अवलोक जहाँ की। | ||
+ | था वरुण-कलेजा हिलता। | ||
+ | बहु-योजन-व्यापी भूतल। | ||
+ | है वहीं अचानक मिलता॥6॥ | ||
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+ | अति तरल सलिल कहलाकर। | ||
+ | है बूँद बूँदपन खोती। | ||
+ | है स्रोत सरित बन पाता। | ||
+ | सरि निधिक में मिल निधिक होती॥7॥ | ||
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+ | फिर रही किसी फिरकी-से। | ||
+ | है काल कहीं फुरतीला। | ||
+ | होती रहती है भव में। | ||
+ | पल-पल परिवर्त्तन-लीला॥8॥ | ||
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+ | (2) | ||
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+ | है बीज अंकुरित होता। | ||
+ | अंकुर तरु है बन पाता। | ||
+ | हो शाखा-पत्रा-सुशोभित। | ||
+ | है तरु प्रसून पा जाता॥1॥ | ||
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+ | खिल-खिल प्रसून छविशाली। | ||
+ | बनता है फल का दाता। | ||
+ | फल बीज से भरित होकर। | ||
+ | है सृजन-दृश्य दिखलाता॥2॥ | ||
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+ | बहु-वाष्प-समूह सघनता। | ||
+ | है घनमाला कहलाती। | ||
+ | घन है बूँदों से भरता। | ||
+ | बूँदें हैं वारि बनाती॥3॥ | ||
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+ | सागर हो या हो वसुधा। | ||
+ | जल कहाँ नहीं दिखलाता। | ||
+ | वह तप-तपकर तापों से। | ||
+ | है पुन: वाष्प बन जाता॥4॥ | ||
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+ | तृण हैं मिट्टी में उगते। | ||
+ | मिट्टी में हैं पल पाते। | ||
+ | जल गये, राख होने पर। | ||
+ | मिट्टी में है मिल जाते॥5॥ | ||
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+ | जो च गये पशुओं से। | ||
+ | वे हैं मल बने दिखाते। | ||
+ | फिर बाहर निकल उदर के। | ||
+ | मिट्टी ही हैं हो जाते॥6॥ | ||
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+ | ऐसी ही विधिकयों से ही। | ||
+ | है बना विश्व यह सारा। | ||
+ | चाहे हो कोई रजकण। | ||
+ | या हो नभतल का तारा॥7॥ | ||
+ | |||
+ | है संसृति का संचालन। | ||
+ | है प्रकृति-प्रवृत्तिक-प्र्रवत्तान। | ||
+ | है भरित गूढ़ भावों से। | ||
+ | भव का अद्भुत परिवर्त्तन॥8॥ | ||
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+ | (3) | ||
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+ | जो तपते हुए तवे पर। | ||
+ | कुछ बूँदें हैं पड़ पाती। | ||
+ | तो वे छन-छनकर छन में। | ||
+ | अन्तर्हित हैं हो जाती॥1॥ | ||
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+ | समझा जाता है जलकर। | ||
+ | वे हैं विनष्ट हो जाती। | ||
+ | पर वाष्प-रूप में पल में। | ||
+ | वे हैं परिणत हो पाती॥2॥ | ||
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+ | जल तेल धूम होता है। | ||
+ | वत्तिकका राख है बनती। | ||
+ | दीपक के बुझ जाने पर। | ||
+ | है ज्योति ज्योति में मिलती॥3॥ | ||
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+ | मरने पर प्राणी-तन को। | ||
+ | पंचत्व प्राप्त होता है। | ||
+ | अजरामर जीव कभी भी। | ||
+ | निज स्वत्व नहीं खोता है॥4॥ | ||
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14:02, 11 सितम्बर 2011 के समय का अवतरण
प्रलय-प्रपंच
परिवर्तन
(1)
जल को थल होते देखा।
थल है जलमय हो जाता।
है गत्ता जहाँ पर गहरा।
था गिरिवर वहाँ दिखाता॥1॥
वे द्वीप जहाँ सुरपुर-से।
बहु सुन्दर नगर दिखाते।
हैं उदधिक-गर्भगत अधुना।
हैं पता न उनका पाते॥2॥
नन्दन-वन-से दृग-रंजन।
बहु वन बन गये मरुस्थल।
हो गये मरुस्थल कितने।
दुरम-वलित शस्य-से श्यामल॥3॥
प्रज्वाल-वमन-रत पर्वत।
बनता है दिव्य हिमाचल।
है अग्नि-गर्भ हो जाता।
हिमराशि-विसिद्बिचत अद्बचल॥4॥
जो नगर अपर अलका था।
थी जहाँ खिंची सुख-खा।
उसको क्षिति हिलते क्षण में।
अन्तर्हित होते देखा॥5॥
निधिकता अवलोक जहाँ की।
था वरुण-कलेजा हिलता।
बहु-योजन-व्यापी भूतल।
है वहीं अचानक मिलता॥6॥
अति तरल सलिल कहलाकर।
है बूँद बूँदपन खोती।
है स्रोत सरित बन पाता।
सरि निधिक में मिल निधिक होती॥7॥
फिर रही किसी फिरकी-से।
है काल कहीं फुरतीला।
होती रहती है भव में।
पल-पल परिवर्त्तन-लीला॥8॥
(2)
है बीज अंकुरित होता।
अंकुर तरु है बन पाता।
हो शाखा-पत्रा-सुशोभित।
है तरु प्रसून पा जाता॥1॥
खिल-खिल प्रसून छविशाली।
बनता है फल का दाता।
फल बीज से भरित होकर।
है सृजन-दृश्य दिखलाता॥2॥
बहु-वाष्प-समूह सघनता।
है घनमाला कहलाती।
घन है बूँदों से भरता।
बूँदें हैं वारि बनाती॥3॥
सागर हो या हो वसुधा।
जल कहाँ नहीं दिखलाता।
वह तप-तपकर तापों से।
है पुन: वाष्प बन जाता॥4॥
तृण हैं मिट्टी में उगते।
मिट्टी में हैं पल पाते।
जल गये, राख होने पर।
मिट्टी में है मिल जाते॥5॥
जो च गये पशुओं से।
वे हैं मल बने दिखाते।
फिर बाहर निकल उदर के।
मिट्टी ही हैं हो जाते॥6॥
ऐसी ही विधिकयों से ही।
है बना विश्व यह सारा।
चाहे हो कोई रजकण।
या हो नभतल का तारा॥7॥
है संसृति का संचालन।
है प्रकृति-प्रवृत्तिक-प्र्रवत्तान।
है भरित गूढ़ भावों से।
भव का अद्भुत परिवर्त्तन॥8॥
(3)
जो तपते हुए तवे पर।
कुछ बूँदें हैं पड़ पाती।
तो वे छन-छनकर छन में।
अन्तर्हित हैं हो जाती॥1॥
समझा जाता है जलकर।
वे हैं विनष्ट हो जाती।
पर वाष्प-रूप में पल में।
वे हैं परिणत हो पाती॥2॥
जल तेल धूम होता है।
वत्तिकका राख है बनती।
दीपक के बुझ जाने पर।
है ज्योति ज्योति में मिलती॥3॥
मरने पर प्राणी-तन को।
पंचत्व प्राप्त होता है।
अजरामर जीव कभी भी।
निज स्वत्व नहीं खोता है॥4॥