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13:28, 21 फ़रवरी 2008 के समय का अवतरण

इतने हसीन मंज़र थे

उनकी बरछियाँ चुभती रहीं

दिमाग़ उनकी झिलमिली में उलझा

मन भूला

और देह पर गिरा

सारा युद्ध


मैं एक हारी हुई योद्धा--

मैदानों में दूर तक

छितरी हैं देहें मेरी

मैं आत्माओं को खोजती हूँ

छिन्न-भिन्न ।