"पाँच मूर्तियाँ / हरिवंशराय बच्चन" के अवतरणों में अंतर
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जाँघें पसारे | जाँघें पसारे | ||
| − | ::खुले में विपरीत-रति-रत | + | :::खुले में विपरीत-रति-रत |
| − | ::अरे, यह तो पंश्चुली है! | + | :::अरे, यह तो पंश्चुली है! |
| − | + | यह कुमारी, | |
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| + | एक व्याभिचारी मुहल्ले की गली में | ||
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| + | गले में डाले सुमिरनी, | ||
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| + | नत-नयन, | ||
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| + | प्रवचन रहस्य-भरा न जाने कौन, किसको, | ||
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| + | मूक वाणी में सुनाती। | ||
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| + | :::यह अछूती, | ||
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| + | :::स्वच्छ पंकज की काली है! | ||
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| + | ::शेर यह- | ||
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| + | ::निर्भीक-मुद्रा- | ||
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| + | था वहाँ पर पड़ा | ||
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| + | चरती हैं बकरियाँ तृण | ||
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| + | भूलकर, वह सिंह की औलाद | ||
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| + | :::पौरूष मूर्त है, | ||
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| + | :::अतिशय बली है। | ||
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| + | और यह शिशु, | ||
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| + | सरल, निश्छल, | ||
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| + | सुप्त, स्वप्निल, | ||
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| + | शुभ्र, निर्मल, | ||
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| + | है पड़ा असहाय-सा | ||
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| + | मल-मूत्र, गंद, ग़लीज़ के दुर्गंध-गच, गहरे गटर में। | ||
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| + | ::::शरण को आई यहाँ पर | ||
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| + | ::::किस प्रणय की बेकली है! | ||
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| + | ओ गरूड़, | ||
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| + | तेरी जगह तो गगन में, | ||
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| + | भूमि पर कैसे पड़ा है, | ||
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| + | पोटली की भाँति गुड़मुड़। | ||
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| + | घूरना था जिस नज़र से सूर्य को | ||
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| + | तू मुझे अनिमिष देखा है। | ||
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| + | ::बाहुओं में अब कहाँ बल, | ||
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| + | ::उम्र मेरी ढल चली है। | ||
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| + | ::X X X | ||
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| + | पंश्चुली, | ||
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| + | श्रीकृष्ण की जन्मस्थली | ||
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| + | यह तीर्थ है, | ||
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| + | इसको अपावन मत बना तू। | ||
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| + | पौर कवि का ठौर तेरा, | ||
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| + | ::जिस जगह सब कलुष-कल्मष | ||
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| + | :::शब्द-स्वाहा? | ||
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| + | कहीं उद्धारक नहीं है तेरा। | ||
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| + | ओ कुमारी सुन, | ||
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| + | सुरक्षित है नहीं कौमार्य तेरा | ||
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| + | इस गली में। | ||
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| + | कान किसके है सुने व्याख्यान तेरा, | ||
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| + | मौन, समझे। | ||
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| + | चल जहाँ कवि का तपस्थल, | ||
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| + | जिस जगह मनुहार अविचल | ||
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| + | कर रहा है वह गिरा की- | ||
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| + | नहीं जो अब तक पसीजी- | ||
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| + | बहु छुए, बहुबार दुहराए स्वरों से; | ||
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| + | और दे कुछ अनछुए स्वर-शब्द | ||
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| + | जो हो, सुखद, सुपद, महार्थ अर्पित हों गिरा को, | ||
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| + | और कर दें तुष्ट | ||
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| + | ::::उस रस-रुप-ध्वनि-लय- | ||
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| + | :::छंद और अछंदमयमंगलमना को। | ||
20:45, 12 दिसम्बर 2011 का अवतरण
यह विखंडित मूर्ति
मथुरा की सड़क पर
मिली मुझको,
शीश-हत,
जाँघें पसारे
- खुले में विपरीत-रति-रत
- अरे, यह तो पंश्चुली है!
यह कुमारी,
एक व्याभिचारी मुहल्ले की गली में
गले में डाले सुमिरनी,
नत-नयन,
प्रवचन रहस्य-भरा न जाने कौन, किसको,
मूक वाणी में सुनाती।
- यह अछूती,
- स्वच्छ पंकज की काली है!
- शेर यह-
- निर्भीक-मुद्रा-
था वहाँ पर पड़ा
चरती हैं बकरियाँ तृण
भूलकर, वह सिंह की औलाद
- पौरूष मूर्त है,
- अतिशय बली है।
और यह शिशु,
सरल, निश्छल,
सुप्त, स्वप्निल,
शुभ्र, निर्मल,
है पड़ा असहाय-सा
मल-मूत्र, गंद, ग़लीज़ के दुर्गंध-गच, गहरे गटर में।
- शरण को आई यहाँ पर
- किस प्रणय की बेकली है!
ओ गरूड़,
तेरी जगह तो गगन में,
भूमि पर कैसे पड़ा है,
पोटली की भाँति गुड़मुड़।
घूरना था जिस नज़र से सूर्य को
तू मुझे अनिमिष देखा है।
- बाहुओं में अब कहाँ बल,
- उम्र मेरी ढल चली है।
- X X X
पंश्चुली,
श्रीकृष्ण की जन्मस्थली
यह तीर्थ है,
इसको अपावन मत बना तू।
पौर कवि का ठौर तेरा,
- जिस जगह सब कलुष-कल्मष
- शब्द-स्वाहा?
कहीं उद्धारक नहीं है तेरा।
ओ कुमारी सुन,
सुरक्षित है नहीं कौमार्य तेरा
इस गली में।
कान किसके है सुने व्याख्यान तेरा,
मौन, समझे।
चल जहाँ कवि का तपस्थल,
जिस जगह मनुहार अविचल
कर रहा है वह गिरा की-
नहीं जो अब तक पसीजी-
बहु छुए, बहुबार दुहराए स्वरों से;
और दे कुछ अनछुए स्वर-शब्द
जो हो, सुखद, सुपद, महार्थ अर्पित हों गिरा को,
और कर दें तुष्ट
- उस रस-रुप-ध्वनि-लय-
- छंद और अछंदमयमंगलमना को।
