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"अंतिम आलोक / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर

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         देखी उस अरुण किरण ने
 
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         कुल पर्वत-माला श्यामल
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         बस एक शृंग पर हिम का
 
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         था कम्पित कंचन झलमल ।
 
         था कम्पित कंचन झलमल ।
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प्राणों में हाय पुरानी
 
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क्यों कसक जग उठी सहसा ?
 
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वेदना-व्योम से मानो
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खोया-सा स्मृति-घन बरसा !
 
खोया-सा स्मृति-घन बरसा !
  

15:24, 17 दिसम्बर 2011 का अवतरण

सन्ध्या की किरण-परी ने
उठ अरुण पंख दो खोले
कम्पित-कर गिरि-शिखरों के
उर-छिपे रहस्य टटोले ।

        देखी उस अरुण किरण ने
        कुल पर्वत-माला श्यामल—
        बस एक शृंग पर हिम का
        था कम्पित कंचन झलमल ।

प्राणों में हाय पुरानी
क्यों कसक जग उठी सहसा ?
वेदना-व्योम से मानो—
खोया-सा स्मृति-घन बरसा !

        तेरी उस अन्त-घड़ी में
        तेरी आँखों में, जीवन !
        ऐसा ही चमक उठा था
        तेरा अन्तिम आँसू-कन !