भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"कठोर हुई जिंदगी / सोम ठाकुर" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सोम ठाकुर |संग्रह= }} {{KKCatGeet}} <poem> हमने तो...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
 
पंक्ति 13: पंक्ति 13:
 
ठोस घुटन आसपास छा गई
 
ठोस घुटन आसपास छा गई
 
कड़वाहट नज़रों तक आ गई  
 
कड़वाहट नज़रों तक आ गई  
तेज़ाबी सिंधु में खटास कि
+
तेज़ाबी सिंधु में खटास की
 
झागिया हिलोर हुई ज़िंदगी  
 
झागिया हिलोर हुई ज़िंदगी  
  
चीख -करहों में डूबे नगर
+
चीख -कराहों में डूबे नगर
 
ले आए अपराधों कि लहर  
 
ले आए अपराधों कि लहर  
दिन - पर- दिन मन ही मन मैले हुए
+
दिन - पर- दिन मन ही मैले हुए
 
क्या नई -निकोर हुई ज़िंदगी
 
क्या नई -निकोर हुई ज़िंदगी
  
 
नाखूनों ने नंगे तन छुए  
 
नाखूनों ने नंगे तन छुए  
दाँत और ज़्यादा पेन हुए  
+
दाँत और ज़्यादा पैने हुए  
पिछड़े हुए है खूनी भेड़िए
+
पिछड़े हुए हैं खूनी भेड़िए
 
खुद आदम- खोर हुई ज़िंदगी  
 
खुद आदम- खोर हुई ज़िंदगी  
  
पंक्ति 31: पंक्ति 31:
 
कैसी मुँहज़ोर हुई ज़िंदगी  
 
कैसी मुँहज़ोर हुई ज़िंदगी  
  
सुकराती आग नही प्यास में  
+
सुकराती आग नहीं प्यास में  
 
रह गया 'निराला' इतिहास में  
 
रह गया 'निराला' इतिहास में  
चाँदी को सॅंटी खाती गई  
+
चाँदी को संटी खाती गई  
 
साहू का ढोर हुई ज़िंदगी  
 
साहू का ढोर हुई ज़िंदगी  
  

14:43, 24 फ़रवरी 2012 के समय का अवतरण

हमने तो जन्म से पहाड़ जिए
और भी कठोर हुई ज़िंदगी
दृष्टि खंड -खंड टूटने लगी
कुहरे कि भोर हुई ज़िंदगी

ठोस घुटन आसपास छा गई
कड़वाहट नज़रों तक आ गई
तेज़ाबी सिंधु में खटास की
झागिया हिलोर हुई ज़िंदगी

चीख -कराहों में डूबे नगर
ले आए अपराधों कि लहर
दिन - पर- दिन मन ही मैले हुए
क्या नई -निकोर हुई ज़िंदगी

नाखूनों ने नंगे तन छुए
दाँत और ज़्यादा पैने हुए
पिछड़े हुए हैं खूनी भेड़िए
खुद आदम- खोर हुई ज़िंदगी

जो कहा समय ने सहना पड़ा
सूरज को जुगनू रहना पड़ा
गाली पर गाली देती गई
कैसी मुँहज़ोर हुई ज़िंदगी

सुकराती आग नहीं प्यास में
रह गया 'निराला' इतिहास में
चाँदी को संटी खाती गई
साहू का ढोर हुई ज़िंदगी

कानो में पिघलता सीसा भरा
क्या अन्धेपन का झरना झरा
मेघदूत-शाकुन्तल चुप हुए
यंत्रो का शोर हुई ज़िंदगी