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"खीजत जात माखन खात / सूरदास" के अवतरणों में अंतर
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− | मोहन माखन काते हुए खीझते जा रहे हैं । नेत्र लाल हो रहे हैं, भौंहे तिरछी हैं, बार-बार जम्हाई लेते हैं । कभी ( | + | मोहन माखन काते हुए खीझते जा रहे हैं । नेत्र लाल हो रहे हैं, भौंहे तिरछी हैं, बार-बार जम्हाई लेते हैं । कभी (नूपुरों को) रुनझुन करते घुटनों से चलते हैं, शरीर धूलि से धूसर हो रहा है, कभी झुककर अपनी अलकें खींचते हैं, जिससे नेत्रों में आँसू भर आते हैं, कभी तोतली वाणी से कुछ कहने लगते हैं, कभी बाबा को बुलाते हैं । सूरदास जी कहते हैं कि श्रीहरि की यह शोभा देखकर माता पलकें भी नहीं डालतीं । (अपलक देख रही हैं) |
20:28, 28 सितम्बर 2007 के समय का अवतरण
राग रामकली
खीजत जात माखन खात ।
अरुन लोचन, भौंह टेढ़ी, बार-बार जँभात ॥
कबहुँ रुनझुन चलत घुटुरुनि, धूरि धूसर गात ।
कबहुँ झुकि कै अलक खैँचत, नैन जल भरि जात ॥
कबहुँ तोतरे बोल बोलत, कबहुँ बोलत तात ।
सूर हरि की निरखि सोभा, निमिष तजत न मात ॥
मोहन माखन काते हुए खीझते जा रहे हैं । नेत्र लाल हो रहे हैं, भौंहे तिरछी हैं, बार-बार जम्हाई लेते हैं । कभी (नूपुरों को) रुनझुन करते घुटनों से चलते हैं, शरीर धूलि से धूसर हो रहा है, कभी झुककर अपनी अलकें खींचते हैं, जिससे नेत्रों में आँसू भर आते हैं, कभी तोतली वाणी से कुछ कहने लगते हैं, कभी बाबा को बुलाते हैं । सूरदास जी कहते हैं कि श्रीहरि की यह शोभा देखकर माता पलकें भी नहीं डालतीं । (अपलक देख रही हैं)