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पं. श्रद्धाराम शर्मा का जन्म पंजाब के जिले जालंधर में स्थित फिल्लौर शहर स्थान नगरोटा बगवाँ में हुआ था। उनके पिता जयदयालु खुद एक अच्छे ज्योतिषी थे। उन्होंने अपने बेटे का भविष्य पढ़ लिया था और भविष्यवाणी की थी कि यह एक अद्भुत बालक होगा। बालक श्रद्धाराम को बचपन से ही धार्मिक संस्कार विरासत में मिले थे। | पं. श्रद्धाराम शर्मा का जन्म पंजाब के जिले जालंधर में स्थित फिल्लौर शहर स्थान नगरोटा बगवाँ में हुआ था। उनके पिता जयदयालु खुद एक अच्छे ज्योतिषी थे। उन्होंने अपने बेटे का भविष्य पढ़ लिया था और भविष्यवाणी की थी कि यह एक अद्भुत बालक होगा। बालक श्रद्धाराम को बचपन से ही धार्मिक संस्कार विरासत में मिले थे। | ||
− | उन्होंने सात साल की उम्र तक गुरुमुखी में पढाई की। दस साल की उम्र में संस्कृत, हिन्दी, फ़ारसी तथा ज्योतिष की पढाई शुरु की और कुछ ही वर्षो में वे इन सभी विषयों के निष्णात हो गए। उनका विवाह सिख महिला महताब कौर के साथ हुआ था। २४ जून १८८१ को लाहौर में उनका देहावसान हुआ। | + | उन्होंने सात साल की उम्र तक गुरुमुखी में पढाई की। दस साल की उम्र में संस्कृत, हिन्दी, फ़ारसी तथा ज्योतिष की पढाई शुरु की और कुछ ही वर्षो में वे इन सभी विषयों के निष्णात हो गए। उनका विवाह सिख महिला महताब कौर के साथ हुआ था। २४ जून १८८१ को लाहौर में उनका देहावसान हुआ। वे सनातन धर्म प्रचारक, ज्योतिषी, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, संगीतज्ञ तथा हिन्दी और पंजाबी के प्रसिद्ध साहित्यकार थे। अपनी विलक्षण प्रतिभा और ओजस्वी वक्तृता के बल पर उन्होने पंजाब में नवीन सामाजिक चेतना एवं धार्मिक उत्साह जगाया जिससे आगे चलकर आर्य समाज के लिये पहले से निर्मित उर्वर भूमि मिली। |
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10:12, 7 मार्च 2012 का अवतरण
पं. श्रद्धाराम शर्मा (या श्रद्धा राम फिल्लौरी ) (१८३७-२४ जून १८८१) लोकप्रिय आरती ओम जय जगदीश हरे के रचयिता हैं।
विषय सूची
जन्म
पं. श्रद्धाराम शर्मा का जन्म पंजाब के जिले जालंधर में स्थित फिल्लौर शहर स्थान नगरोटा बगवाँ में हुआ था। उनके पिता जयदयालु खुद एक अच्छे ज्योतिषी थे। उन्होंने अपने बेटे का भविष्य पढ़ लिया था और भविष्यवाणी की थी कि यह एक अद्भुत बालक होगा। बालक श्रद्धाराम को बचपन से ही धार्मिक संस्कार विरासत में मिले थे। उन्होंने सात साल की उम्र तक गुरुमुखी में पढाई की। दस साल की उम्र में संस्कृत, हिन्दी, फ़ारसी तथा ज्योतिष की पढाई शुरु की और कुछ ही वर्षो में वे इन सभी विषयों के निष्णात हो गए। उनका विवाह सिख महिला महताब कौर के साथ हुआ था। २४ जून १८८१ को लाहौर में उनका देहावसान हुआ। वे सनातन धर्म प्रचारक, ज्योतिषी, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, संगीतज्ञ तथा हिन्दी और पंजाबी के प्रसिद्ध साहित्यकार थे। अपनी विलक्षण प्रतिभा और ओजस्वी वक्तृता के बल पर उन्होने पंजाब में नवीन सामाजिक चेतना एवं धार्मिक उत्साह जगाया जिससे आगे चलकर आर्य समाज के लिये पहले से निर्मित उर्वर भूमि मिली।
रचनाएँ
पं. श्रध्दाराम ने पंजाबी (गुरूमुखी) में 'सिक्खां दे राज दी विथियाँ' और 'पंजाबी बातचीत' जैसी पुस्तकें लिखीं। अपनी पहली ही किताब 'सिखों दे राज दी विथिया' से वे पंजाबी साहित्य के पितृपुरुष के रूप में प्रतिष्ठित हो गए। इस पुस्तक मे सिख धर्म की स्थापना और इसकी नीतियों के बारे में बहुत सारगर्भित रूप से बताया गया था। पुस्तक में तीन अध्याय है। इसके अंतिम अध्याय में पंजाब की संकृति, लोक परंपराओं, लोक संगीत आदि के बारे में विस्तृत जानकारी दी गई थी। अंग्रेज सरकार ने तब होने वाली आईसीएस (जिसका भारतीय नाम अब आईएएस हो गया है) परीक्षा के कोर्स में इस पुस्तक को शामिल किया था।
उन्होंने धार्मिक कथाओं और आख्यानों का उध्दरण देते हुए अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ जनजागरण का ऐसा वातावरण तैयार कर दिया कि अंग्रेजी सरकार की नींद उड़ गई। वे महाभारत का उल्लेख करते हुए ब्रिटिश सरकार को उखाड़ फेंकने का संदेश देते थे और लोगों में क्रांतिकारी विचार पैदा करते थे। १८६५ में ब्रिटिश सरकार ने उनको फुल्लौरी से निष्कासित कर दिया और आसपास के गाँवों तक में उनके प्रवेश पर पाबंदी लगा दी गई। जबकि उनकी लिखी किताबें स्कूलों में पढ़ाई जाती रही। पं. श्रद्धाराम खुद ज्योतिष के अच्छे ज्ञाता थे और अमृतसर से लेकर लाहौर तक उनके चाहने वाले थे इसलिए इस निष्कासन का उन पर कोई असर नहीं हुआ, बल्कि उनकी लोकप्रियता और बढ गई। लोग उनकी बातें सुनने को और उनसे मिलने को उत्सुक रहने लगे। इसी दौरान उन्होंने हिन्दी में ज्योतिष पर कई किताबें भी लिखी। लेकिन एक इसाई पादरी फादर न्यूटन जो पं. श्रध्दाराम के क्रांतिकारी विचारों से बेहद प्रभावित थे, के हस्तक्षेप पर अंग्रेज सरकार को थोड़े ही दिनों में उनके निष्कासन का आदेश वापस लेना पड़ा। पं. श्रध्दाराम ने पादरी के कहने पर बाईबिल के कुछ अंशों का गुरुमुखी में अनुवाद किया था। पं. श्रद्धाराम ने अपने व्याख्यानों से लोगों में अंग्रेज सरकार के खिलाफ क्रांति की मशाल ही नहीं जलाई बल्कि साक्षरता के लिए भी ज़बर्दस्त काम किया।
विरासत
१८७० में उन्होंने प्रसिद्ध आरती, ओम जय जगदीश हरे / श्रद्धा राम फिल्लौरी ' "ओम जय जगदीश" की आरती की रचना की। प. श्रद्धाराम की विद्वता, भारतीय धार्मिक विषयों पर उनकी वैज्ञानिक दृष्टि के लोग कायल हो गए थे। जगह-जगह पर उनको धार्मिक विषयों पर व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया जाता था और तब हजारों की संख्या में लोग उनको सुनने आते थे। वे लोगों के बीच जब भी जाते अपनी लिखी ओम जय जगदीश की आरती गाकर सुनाते। उनकी आरती सुनकर तो मानो लोग बेसुध से हो जाते थे। आरती के बोल लोगों की जुबान पर ऐसे चढ़े कि आज कई पीढियाँ गुजर जाने के बाद भी उनके शब्दों का जादू कायम है। १८७७ में भाग्यवती नामक एक उपन्यास प्रकाशित हुआ (जिसे हिन्दी का पहला उपन्यास माना जाता है), इस उपन्यास की पहली समीक्षा अप्रैल १८८७ में हिन्दी की मासिक पत्रिका प्रदीप में प्रकाशित हुई थी। पं. श्रद्धाराम के जीवन और उनके द्वारा लिखी गई पुस्तकों पर गुरू नानक विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के डीन और विभागाध्य्क्ष श्री डॉ. हरमिंदर सिंह ने ज़बर्दस्त शोध कर तीन संस्करणों में श्रद्धाराम ग्रंथावली का प्रकाशन भी किया है। उनका मानना है कि पं. श्रद्धाराम का यह उपन्यास हिन्दी साहित्य का पहला उपन्यास है। हिन्दी के जाने माने लेखक और साहित्यकार पं. रामचंद्र शुक्ल ने पं. श्रद्धाराम शर्मा और भारतेंदु हरिश्चंद्र को हिन्दी के पहले दो लेखकों में माना है। पं.श्रद्धाराम शर्मा हिन्दी के ही नहीं बल्कि पंजाबी के भी श्रेष्ठ साहित्यकारों में थे, लेकिन उनका मानना था कि हिन्दी के माध्यम इस देश के ज्यादा से ज्यादा लोगों तक अपनी बात पहुँचाई जा सकती है। रचनाएँ
आपकी लगभग दो दर्जन रचनाओं का पत चलता है, यथा-
(क) संस्कृत - (१) नित्यप्रार्थना (शिखरिणी छंद के ११ पदों में ईश्वर की दो स्तुतियाँ)। (२) भृगुसंहिता (सौ कुंडलियों में फलादेश वर्णन), यह अधूरी रचना है। (३) हरितालिका व्रत (शिवपुराण की एक कथा)। (४) "कृष्णस्तुति" विषयक कुछ श्लोक, जो अब अप्राप्य हैं।
(ख) हिंदी - (१) तत्वदीपक (प्रश्नोत्तर में श्रुति, स्मृति के अनुसार धर्म कर्म का वर्णन)। (२) सत्य धर्म मुक्तावली (फुल्लौरी जी के शिष्य श्री तुलसीदेव संगृहीत भजनसंग्रह) प्रथम भाग में ठुमरियाँ, बिसन पदे, दूती पद हैं; द्वितीय में रागानुसार भजन, अंत में एक पंजाबी बारामाह। (३) भाग्यवती (स्त्रियों की हीनावस्था के सुधार हेतु प्रणीत उपन्यास)। (४) सत्योपदेश (सौ दोहों में अनेकविध शिक्षाएँ) (५) बीजमंत्र ("सत्यामृतप्रवाह' नामक रचना की भूमिका)। (६) सत्यामृतप्रवाह (फुल्लौरी जी के सिद्धांतों, और आचार विचार का दर्पण ग्रंथ)। (७) पाकसाधनी (रसोई शिक्षा विषयक)। (८) कौतुक संग्रह (मंत्रतंत्र, जादूटोने संबंधी)। (९) दृष्टांतावली (सुने हुए दृष्टांतों का संग्रह, जिन्हें श्रद्धाराम अपने भाषणों और शास्त्रार्थों में प्रयुक्त करते थे)। (१०) रामलकामधेनु ("नित्य प्रार्थना' में प्रकाशित विज्ञापन से पता चलता है कि यह ज्योतिष ग्रंथ संस्कृत से हिंदी में अनूदित हुआ था)। (११) आत्मचिकित्सा (पहले संस्कृत में लिखा गया था। बाद में इसका हिंदी अनुवाद कर दिया गया। अंतत: इसे फुल्लौरी जी की अंतिम रचना "सत्यामृत प्रवाह' के प्रारंभ में जोड़ दिया गया था)। (१२) महाराजा कपूरथला के लिए विरचित एक नीतिग्रंथ (अप्राप्य है)।
(ग) उर्दू - (१) दुर्जन-मुख-चपेटिका, (२) धर्मकसौटी (दो भाग), (३) धर्मसंवाद (४) उपदेश संग्रह (फुल्लौरी जी के भाषणों आदि के विषय में प्रकाशित समाचारपत्रों की रिपोर्टें), (५) असूल ए मज़ाहिब (पंजाब के लेफ्टिनेंट गवर्नर के इच्छानुसार फारसी पुस्तक "दबिस्तानि मज़ाहिब' का अनुवाद)। पहली तीनों रचनाओं में भागवत (सनातन) धर्म का प्रतिपादन एवं भारतीय तथा अभारतीय प्राचीन अर्वाचीन मतों का जोरदार खंडन किया गया।
(घ) पंजाबी - (१) बारहमासा (संसार से विरक्ति का उपदेश)। (२) सिक्खाँ दे इतिहास दी विथिआ (यह ग्रंथ अंग्रेजों के पंजाबी भाषा की एक परीक्षा के पाठ्यक्रम के लिए लिखा गया था। इसमें कुछेक अनैतिहासिक और जन्मसाखियों के विपरीत बातें भी उल्लिखित थीं)। (३) पंजाबी बातचीत, पंजाब के विभिन्न क्षेत्रों की उपभाषाओं के नमूनों, खेलों और रीति रिवाजों का परिचयात्मक ग्रंथ)। (४) बैंत और विसनपदों में विरचित समग्र "रामलीला' तथा "कृष्णलीला' (अप्राप्य)।
गद्य रचनाएँ
फुल्लौरी जी की अधिकांश रचनाएँ गद्य में हैं। वे १८वीं शताब्दी उत्तरार्ध के हिंदी और पंजाबी के प्रतिनिधि गद्यकार हैं। उनके हिंदी गद्य में खड़ी बोली का प्राधान्य है। यत्रतत्र उर्दू और पंजाबी का पुठ भी है। पंजाबी गद्य दो शैलियों में उपलब्ध है। "सिक्खाँ दे इतिहास दी विथिआ" में सरल, गंभीर तथा अलंकारविहीन भाषा का प्रयोग हुआ है। इसमें दुआबी और मालवी का मिश्रित रूप उपलब्ध होता है। "पंजाबी बातचीत" में मुहावरेदार और व्यंग्यपूर्ण भाषा व्यवहृत हुई है। उसमें पंजाबी की प्रमुख क्षेत्रीय उपभाषाओं का समुच्चय है। उनकी पद्यरचना अधिक नहीं है। प्रारंभ में उन्होंने हिंदी काव्यरचना हेतु ब्रज को अपनाया था, किंतु खड़ी बोली को जनोपयोगी भाषा समझकर वे उस ओर प्रवृत्त हुए। उनके भजनों में खड़ी बोली ही व्यवहृत हुई है। उत्तर भारत के वैष्णव में पूजा के समय उनकी प्रसिद्ध आरती (जय जगदीश हरे। स्वामी जय जगदीश हरे। भगत जनों के संकट छिन में दूर करें....) आज भी गाई जाती है।
ईसाई मत की ओर उन्मुख हो रहे कपूरथला नरेश रणधीर सिंह के संशय निवारण से इनका प्रभाव खूब बढ़ा। समय-समय पर इन्हें पटियाला, कपूरथला, जम्मू तथाश् काँगड़ा प्रदेश के राजाओं से सम्मान और वृत्तियाँ भी प्राप्त हुई। "असूल एक मज़ाहिब" तथा "भाग्यवती' नामक उनकी रचनाएँ पुरस्कृत भी हुईं।