"हरि अपनैं आँगन कछु गावत / सूरदास" के अवतरणों में अंतर
Pratishtha (चर्चा | योगदान) (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सूरदास }} राग रामकली हरि अपनैं आँगन कछु गावत ।<br> तनक-तन...) |
Pratishtha (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 17: | पंक्ति 17: | ||
भावार्थ ;-- | भावार्थ ;-- | ||
− | श्यामसुन्दर अपने | + | श्यामसुन्दर अपने आँगन में कुछ गा रहे हैं । वे अपने नन्हें-नन्हें चरणों से नाचते जाते हैं और अपने-आप अपने ही चित्त को आनन्दित कर रहे हैं । कभी दोनों हाथ उठाकर `कजरी'`धौरी' आदि नामों से गायों को पुकारकर बुलाते हैं, कभी नन्द बाबा को पुकारते हैं और कभी घरके भीतर चले आते हैं । अपने हाथ पर थोड़ा-सा मक्खन लेकर छोटे-से मुख में डालते हैं, कभी मणिमय खम्भे में अपना प्रतिबिम्ब देखकर (उसे अन्य बालक समझकर) मक्खन लेकर उसे खिलाते हैं । श्रीयशोदा जी छिपकर यह लीला देख रही हैं । वे हर्षित हो रही हैं, (अपनी लीला से प्रभु) उनका आनन्द बढ़ा रहे हैं। सूरदास जी कहते हैं कि श्यामसुन्दर के बालचरित्र नित्य-नित्य देखने में रुचिकर लगते हैं । (उनमें नित्य नवीन आनन्द मिलता है।) |
22:32, 28 सितम्बर 2007 का अवतरण
राग रामकली
हरि अपनैं आँगन कछु गावत ।
तनक-तनक चरननि सौ नाचत, मनहीं मनहि रिझावत॥
बाँह उठाइ काजरी-धौरी गैयनि टेरि बुलावति ।
कबहुँक बाबा नंद पुकारत, कबहुँक घर मैं आवत ॥
माखन तनक आपनैं कर लै, तनक बदन मैं नावत ।
कबहुँ चितै प्रतिबिंब खंभ लौनी लिए खवावत ॥
दुरि देखति जसुमति यह लीला, हरष अनंद बढ़ावत ।
सूर स्याम के बाल-चरित, नित-नितहीं देखत भावत ॥
भावार्थ ;--
श्यामसुन्दर अपने आँगन में कुछ गा रहे हैं । वे अपने नन्हें-नन्हें चरणों से नाचते जाते हैं और अपने-आप अपने ही चित्त को आनन्दित कर रहे हैं । कभी दोनों हाथ उठाकर `कजरी'`धौरी' आदि नामों से गायों को पुकारकर बुलाते हैं, कभी नन्द बाबा को पुकारते हैं और कभी घरके भीतर चले आते हैं । अपने हाथ पर थोड़ा-सा मक्खन लेकर छोटे-से मुख में डालते हैं, कभी मणिमय खम्भे में अपना प्रतिबिम्ब देखकर (उसे अन्य बालक समझकर) मक्खन लेकर उसे खिलाते हैं । श्रीयशोदा जी छिपकर यह लीला देख रही हैं । वे हर्षित हो रही हैं, (अपनी लीला से प्रभु) उनका आनन्द बढ़ा रहे हैं। सूरदास जी कहते हैं कि श्यामसुन्दर के बालचरित्र नित्य-नित्य देखने में रुचिकर लगते हैं । (उनमें नित्य नवीन आनन्द मिलता है।)