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22:20, 18 मई 2012 के समय का अवतरण
पीर-तरी से
निकले सागर में
तुमसे कैसे
अपने दु:ख बाँटूँ !
घोर अँधेरा
पथ है अनजाना
बोलो कैसे मैं
दर्दीले पल काटूँ ।
जितने मिले
हमें प्राण से प्यारे
न चाहकर
वे हर बाजी हारे
गहन गुफ़ा
पग-पग है खाई
कैसे इनकी
गहराई पाटूँ !
जो दिखते हैं
महामानव ज्ञानी
उनकी लाखों
हैं कपट कहानी
रोती दीवारें
सन्तापों की हिचकी
लाक्षगृह में
घिरे जीवन भर
बूँद-बूँद को
तरस गए तुम
सुने न कोई
सागर -सी गाथा
दूँ प्यार किसे ?
सब पर पहरा
हर द्वारे पे
है सन्नाटा गहरा
कोई न बूझे
जले मन की ज्वाला
राह न सूझे
किस -किस पथ के
मैं सब काँटे छाँटूँ ।
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