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"सच से मुठभेड़ / सुधा गुप्ता" के अवतरणों में अंतर

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जब भी हुई
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सच से मुठभेड़
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लहू-लुहान
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हुई इंसानियत
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दम तोड़ती मिली
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बूढ़े मोशाय
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जो साठ वर्ष ‘खटे’
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बड़े थे थके
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हुए ‘सेवा-निवृत्त’
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घर ने किया ‘मुक्त’
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लहू से सींचा
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मकान था बनाया
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घनी थी ‘माया’
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संतान ने सताया
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वृद्धाश्रम ही भाया
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सिर पै धारे
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फूस भरी टोकरी
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झुर्री का जाल
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बैठी जरा डोकरी
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भूख-करे बेहाल
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सुख का साथी
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घर-परिवार है
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दुःख का साथी
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सिर्फ़ अकेलापान
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किसे खोजे पागल
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माँ को याद है
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बेटों का बचपन
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वृद्धा-सहारा
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महक-भरी रातें
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शहद-डूबे दिन
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भूखे हैं बच्चे
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रोटी को तड़पते
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अंधी जो श्रद्धा
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पत्थर-प्रतिमा को
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दूध से नहलाए
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सुनो विधाता!
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ये अनहोनी हुई
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क्यों दी सम्पदा
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कस्तूरी के कारण
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मृग की जान गई
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कैसी दुनिया
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सारे रिश्ते देने के
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पाने को शून्य
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जिन्हें चाहा प्राणों से
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वहीं ‘प्राणलेवा’ हैं
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रद्दी में  फिंकी
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ज़िन्दगी की किताब
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उघड़ी जिल्द
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बिखरे हुए पन्ने
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आँसुओं का हिसाब
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जो मंदाकिनी
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थी जीवन दायिनी
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चर-अचर
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यों कलुषित हुई
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आज है विजमयी
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अकेली चली
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दुःखों के दरिया में
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आँसू की कश्ती
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ख़ुद ही मँझधार
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ख़ुद ही पतवार
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बीतीं सदियाँ
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लगती बस जैसे
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कल की बात
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मासूम  क़ह्क़हे
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ख़ुशियों की बारात
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गला फाड़ के
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चीख़ता है गायक
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‘पॉप’ संगीत
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अभिनव अंदाज़
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सदी का है नायक
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शिकारी कहे
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तोले दे पंख, देख-
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खुले सींकचे
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बाहर आया पाखी
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डैने कटे हुए थे
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देखे ने पाखी
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बहेलिये की चाल
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भूख की मार
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दानों में ललचाया
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ख़ुद को  कैद पाया
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सुखों की आँधी
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उड़ी है मानवता
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नरः पिशाच
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क्रूर कृत्यों की बाढ़
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बहाकर मानेगी
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स्वार्थी मानव
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अपना पेट भरे
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कभी न सोचे
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भयानक वर्षा में
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पाखी भूखे रहेंगे
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नदी की बाढ़
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धरा  को लील गई
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बहे हैं गाँव
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बिछुड़े माँ से बच्चे
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रोटी को कलपते
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भाई-बहन
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सुख-दुःख की जोड़ी
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साथ रहती
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कभी मत भूलना
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झूले पर झूलना
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खेत से आया
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माटी से पुता-सना
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ये नया आलू
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माटी का बेटा है न!
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नेह-नाता छूटे न...
 +
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महँगाई ने
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जीना किया दुश्वार
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मरी जनता
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चाँदी चिढ़ाती रही
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सोना रहा हँसता
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झाल-मुड़ी खा
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होटल बनाये हैं
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‘पंच सितारा’
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जी-भर दिन काटे
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दर्द हमारे बाँटे
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घास छीलतीं
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दादी-पाती तेज़ी से
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बहा पसीना
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माथे चढ़ा सूरज
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आँखें तरेर रहा
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हीरे का दंभ:
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सिर्फ़ काँच ही नहीं
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आँत भी काटूँ
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मरना ही चाहें जो
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उनका दर्द बाँटूं
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बना खिलौने
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कुछ देर खेलता
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तोड़ डालता
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मन मौजी वो बच्चा
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सृष्टि नियंता सच्चा
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वो डैना टूटी
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लँगड़ाती गौरैया
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आँगन आती
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भटकती रहती
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ढूँढती खोया गीत
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सुबह मैंने
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उड़ान लेते डैने
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गिरते देखे
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आप फेंके पत्थर
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सही निशाने पर
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भूख का मारा
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पीठ पर ढोए चारा
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उँफट बेचारा
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जितना बड़ा पेट
 +
उतनी बड़ी सज़ा
 +
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कड़वी नीम
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मीठी पकी निंबौली
 +
हैं लदी पड़ी
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‘जैसी माँ वैसी बेटी’
 +
लोकोक्ति झूठ रही
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कैसा विकास
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चीथड़ों में बालक
 +
बीने कचरा
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भारत का भविष्य
 +
चिरा-फटा टुकड़ा
 +
 +
दीवाली बाद
 +
झोंपड़ पट्टी- बच्चे
 +
खोजते मोम
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फेंके गये कचरे
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ललचाते, बुलाते
 +
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आसमान में
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अटकी हुई चीख़
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हमलावर
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क्रूर बाज़ के पंजे
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फँसी ज़ख्मी चिड़िया
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छलने चले
 +
ख़ुद ही छले गये
 +
फिसले ऐसे
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रोके न रोके, बस
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फिसले चले गये
 +
 +
दो नन्हें जीव
 +
जुगनू व मच्छर
 +
बड़ा अन्तर
 +
एक बाँटे रोशनी
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एक चुभा दे पिन
 +
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राके न रुका
 +
अँगूठा दिखाकर
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चलता बना
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बड़ा बेवफ़ा ‘सुख’
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सितमगर बड़ा
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रे बंसी वाले
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अजब तेरी माया
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खेल निराले
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भूख दे, रोटी नहीं
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‘सोना’ दे, नींदे उड़ीं
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कर्कश बैन
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क्रोध नचाए नैन
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बिखेरे बाल
 +
काली-कापालिका सी
 +
रमणी आधुनिका
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एक नौका में
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साथ चले थे पार
 +
दर्जनो यात्री
 +
नियतिः कुछ डूबे
 +
कुछ उतरे पार
 +
 +
 +
चाँद-सा गोरा
 +
उजला जो कटोरा
 +
गुलाबी हाथों
 +
खीर-मेवा से भरा
 +
ठाकुर भोग लगा
  
  
 
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15:46, 22 मई 2012 का अवतरण


जब भी हुई
सच से मुठभेड़
लहू-लुहान
हुई इंसानियत
दम तोड़ती मिली

बूढ़े मोशाय
जो साठ वर्ष ‘खटे’
बड़े थे थके
हुए ‘सेवा-निवृत्त’
घर ने किया ‘मुक्त’

लहू से सींचा
मकान था बनाया
घनी थी ‘माया’
संतान ने सताया
वृद्धाश्रम ही भाया

सिर पै धारे
फूस भरी टोकरी
झुर्री का जाल
बैठी जरा डोकरी
भूख-करे बेहाल

सुख का साथी
घर-परिवार है
दुःख का साथी
सिर्फ़ अकेलापान
किसे खोजे पागल

माँ को याद है
 बेटों का बचपन
वृद्धा-सहारा
महक-भरी रातें
शहद-डूबे दिन

भूखे हैं बच्चे
रोटी को तड़पते
अंधी जो श्रद्धा
पत्थर-प्रतिमा को
दूध से नहलाए

सुनो विधाता!
ये अनहोनी हुई
क्यों दी सम्पदा
कस्तूरी के कारण
मृग की जान गई

कैसी दुनिया
सारे रिश्ते देने के
पाने को शून्य
जिन्हें चाहा प्राणों से
वहीं ‘प्राणलेवा’ हैं

रद्दी में फिंकी
ज़िन्दगी की किताब
उघड़ी जिल्द
बिखरे हुए पन्ने
आँसुओं का हिसाब

जो मंदाकिनी
थी जीवन दायिनी
चर-अचर
यों कलुषित हुई
आज है विजमयी

अकेली चली
दुःखों के दरिया में
आँसू की कश्ती
ख़ुद ही मँझधार
ख़ुद ही पतवार

बीतीं सदियाँ
लगती बस जैसे
कल की बात
मासूम क़ह्क़हे
ख़ुशियों की बारात

गला फाड़ के
चीख़ता है गायक
‘पॉप’ संगीत
अभिनव अंदाज़
सदी का है नायक

शिकारी कहे
तोले दे पंख, देख-
खुले सींकचे
बाहर आया पाखी
डैने कटे हुए थे

देखे ने पाखी
बहेलिये की चाल
भूख की मार
दानों में ललचाया
ख़ुद को कैद पाया

सुखों की आँधी
उड़ी है मानवता
नरः पिशाच
क्रूर कृत्यों की बाढ़
बहाकर मानेगी

स्वार्थी मानव
अपना पेट भरे
कभी न सोचे
भयानक वर्षा में
पाखी भूखे रहेंगे

नदी की बाढ़
धरा को लील गई
बहे हैं गाँव
बिछुड़े माँ से बच्चे
रोटी को कलपते

भाई-बहन
सुख-दुःख की जोड़ी
साथ रहती
कभी मत भूलना
झूले पर झूलना

खेत से आया
माटी से पुता-सना
ये नया आलू
माटी का बेटा है न!
नेह-नाता छूटे न...

महँगाई ने
जीना किया दुश्वार
मरी जनता
चाँदी चिढ़ाती रही
सोना रहा हँसता

झाल-मुड़ी खा
होटल बनाये हैं
‘पंच सितारा’
जी-भर दिन काटे
दर्द हमारे बाँटे

घास छीलतीं
दादी-पाती तेज़ी से
बहा पसीना
माथे चढ़ा सूरज
आँखें तरेर रहा

हीरे का दंभ:
सिर्फ़ काँच ही नहीं
आँत भी काटूँ
मरना ही चाहें जो
उनका दर्द बाँटूं

बना खिलौने
कुछ देर खेलता
तोड़ डालता
मन मौजी वो बच्चा
सृष्टि नियंता सच्चा

वो डैना टूटी
लँगड़ाती गौरैया
आँगन आती
भटकती रहती
ढूँढती खोया गीत

सुबह मैंने
उड़ान लेते डैने
गिरते देखे
आप फेंके पत्थर
सही निशाने पर

भूख का मारा
पीठ पर ढोए चारा
उँफट बेचारा
जितना बड़ा पेट
उतनी बड़ी सज़ा

कड़वी नीम
मीठी पकी निंबौली
हैं लदी पड़ी
‘जैसी माँ वैसी बेटी’
लोकोक्ति झूठ रही

कैसा विकास
चीथड़ों में बालक
बीने कचरा
भारत का भविष्य
चिरा-फटा टुकड़ा

दीवाली बाद
झोंपड़ पट्टी- बच्चे
खोजते मोम
फेंके गये कचरे
ललचाते, बुलाते

आसमान में
अटकी हुई चीख़
हमलावर
क्रूर बाज़ के पंजे
फँसी ज़ख्मी चिड़िया

छलने चले
ख़ुद ही छले गये
फिसले ऐसे
रोके न रोके, बस
फिसले चले गये

दो नन्हें जीव
जुगनू व मच्छर
बड़ा अन्तर
एक बाँटे रोशनी
एक चुभा दे पिन

राके न रुका
अँगूठा दिखाकर
चलता बना
बड़ा बेवफ़ा ‘सुख’
सितमगर बड़ा

रे बंसी वाले
अजब तेरी माया
खेल निराले
भूख दे, रोटी नहीं
‘सोना’ दे, नींदे उड़ीं

कर्कश बैन
क्रोध नचाए नैन
बिखेरे बाल
काली-कापालिका सी
रमणी आधुनिका

एक नौका में
साथ चले थे पार
दर्जनो यात्री
नियतिः कुछ डूबे
कुछ उतरे पार


चाँद-सा गोरा
उजला जो कटोरा
गुलाबी हाथों
खीर-मेवा से भरा
ठाकुर भोग लगा


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