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"पिता / मधु गजाधर" के अवतरणों में अंतर

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लाल कपडे से
 
लाल कपडे से

22:34, 6 जून 2012 के समय का अवतरण

लाल कपडे से
बंधा
मिटटी का कलश
और उस के अन्दर
अस्थियों के रूप में
सिमिट आये हैं
मेरे पिता
एक लम्बा चौड़ा शरीर,
जिस के कंधे पर बैठ कर मैंने,
हर भय से खुद को
ऊपर पाया था,
जिस की उंगली पकड़ कर,
मैंने दुनिया की पगडण्डी पर
चलना सीखा था,
जिस की आँखों के ख़्वाब,
कब कैसे मेरी आँखों में
उतर आये थे
और उन सपनों को
पूरा करने में
कैसे वो जुड़ गए थे मेरे साथ,
मेरी हर चाहत को पूरा करते,
मेरे सुख आराम का ख्याल रखते

पिता,
अब घिसने लगे थे,
उम्र कुछ जल्दी ही उतर आई थी उन पर
फिर एक दिन,
वो सपने
पूरे हुए लेकिन
उन सपनों के फैलाव में
बहुत से नए चेहरे जुड़ गए थे,
एक भीड़ सी घिर आई थी
मेरे इर्द-गिर्द,
पत्नी, बच्चे, दोस्त, क्लब, पार्टी,
पर उस भीड़ में पिता नही थे कहीं,
क्योंकि मैं
मैं...
उन का बेटा
उच्चता के शिखर पर बैठा
एक बड़ा अफसर
धीरे धीरे
पिता की उंगली छोड़ बैठा
ना जाने कब कहाँ कैसे
पिता उस भीड़ में खो गए,
दब गए उस भीड़ में
औरमैंने...
हाँ मैंने
उन्हें ढूँढने की कोशिश नहीं की
क्योंकि पिता
अब एक पैबंद बन गए थे
मैं उस पैबंद को
दुनिया की नज़रों से
छिपाना चाहता था,
और पिता भी
बिना कुछ बोले
सब कुछ समझ गए थे
शायद इसी लिए
उन्होंने खुद को
बंद कर लिया था एक गुफा में
और एक दिन
उस गुफा में से ही चुपचाप
एकदिन
पिता ने अनंत यात्रा को प्रस्थान कर लिया
चले गए दूर ...बहुत दूर
चिठ्ठी पत्री की सीमाओं से भी दूर
मृत्यु के साथ ही
पिता
पैबंद के दायरे से बाहर निकल आये
फिर से बन गए मेरे पिता,
एक बड़े आदमी के पिता ,
भीड़ भर गयी मेरे आँगन में,
सहानुभूति के शब्द, लोगों का आलिंगन,
शोक ग्रस्त चेहरे
और मैं,
दुनियादारी को निभाता
सब की द्रष्टि का केंद्र बना
लोगों से घिरा
खड़ा हूँ
सामने है पत्नी और उस की गोदी में ,
मेरा पुत्र
मैं एक नज़र देखता हूँ अपने बेटे की और,
मेरी जान, मेरा लाडला मेरा पुत्र
क्या ना कुर्बान कर दूं
तभी...
ना जाने क्यों मेरी हथेलियाँ
जकड जाती हैं कलश के इर्दगिर्द
मेरे हाथों में रखा मिटटी का कलश,
उस में रखी पिता की अस्थियाँ,
पंडित जी का मंत्रोचारण
और तभी...
मेरे हाथ मेरे बेटे के हाथ बन जाते हैं,
कलश में रखी अस्थियाँ मेरी अस्थियाँ बन जाती हैं,
खुद की जगह अपने पुत्र को देखता हूँ
सर मुंडाए हुए
उन सब के बीच मेरा 'मैं' झुलस रहा है
नहीं...नहीं
पश्चाताप की अग्नि में नहीं
अपने लिए उत्पन्न हुए भय से
क्या कल ये कहानी मेरे साथ भी दोहराई जायेगी...
क्या कल मैं भी यूं ही....
क्या कल मेरा पुत्र भी मेरे साथ...
उफ़...
मैं फूट फूट कर रो उठता हूँ
लोग व्याकुल हो जाते हैं,
मेरे रुदन से
और मेरा मन जानता है
कि मेरा ये रुदन
मेरे मृतक
पिता के लिए नहीं
मेरे अपने लिए है...
अपने आने वाले कल के लिए