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ज़िंदगी से चन्द लम्हें मैं अब चुराकर लाई हूँ | ज़िंदगी से चन्द लम्हें मैं अब चुराकर लाई हूँ | ||
11:53, 3 अक्टूबर 2007 का अवतरण
ज़िंदगी से चन्द लम्हें मैं अब चुराकर लाई हूँ
मौत को ही मीत अपना अब बनाकर आई हूँ ।
शिद्दतें देखी थी पहले पर कभी ऐसी न थी
याद से उनकी मगर रिश्ता निभाकर आई हूँ ।
गर्दिशों की गर्द से होते नहीं हिम्मत-शिकन
ख़ून से तलवों पे मेंहदी मैं सजाकर आई हूँ ।
जूझना मुमकिन तो है इस जान-लेवा दौर में
ख़ुदकुशी करने से ख़ुद को बस बचाकर आई हूँ ।
सैकड़ों थे ज़िंदगी से यूँ हमें शिकवे-गिले
पर तेरे इसरार से सारे भुलाकर आई हूँ ।
याद के जुगनू अंधेरों को मिटा देंगे मगर
राह में तेरी दिया मैं इक जलाकर आई हूँ ।
जिस तराज़ू में था तोला, मुझ पे वो भारी पड़ा
मोल उसका मैं मगर सारा चुका कर आई हूँ ।
श्रद्धा और विश्वास के वो भाव मैं लाऊं कहाँ से
सजदे में सर को मैं अपने बस झुकाकर आई हूँ ।
गर्द है चेहरे पे देवी यूँ उदासी की जमी
जीते जी अपना ही मातम ख़ुद मनाकर आई हूँ ।