"रश्मिरथी / षष्ठ सर्ग / भाग 7" के अवतरणों में अंतर
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+ | पेड़ों की जड़ टूटने लगी, | ||
+ | हिम्मत सब की छूटने लगी, | ||
+ | ऐसा प्रचण्ड तूफान उठा, | ||
+ | पर्वत का भी हिल प्राण उठा। | ||
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+ | प्लावन का पा दुर्जय प्रहार, | ||
+ | जिस तरह काँपती है कगार, | ||
+ | या चक्रवात में यथा कीर्ण, | ||
+ | उड़ने लगते पत्ते विशीर्ण, | ||
+ | त्यों उठा काँप थर-थर अरिदल, | ||
+ | मच गयी बड़ी भीषण हलचल। | ||
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+ | सब रथी व्यग्र बिललाते थे, | ||
+ | कोलाहल रोक न पाते थे। | ||
+ | सेना का यों बेहाल देख, | ||
+ | सामने उपस्थित काल देख, | ||
+ | गरजे अधीर हो मधुसूदन, | ||
+ | बोले पार्थ से निगूढ़ वचन। | ||
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+ | ‘‘दे अचिर सैन्य का अभयदान, | ||
+ | अर्जुन ! अर्जुन ! हो सावधान, | ||
+ | तू नहीं जानता है यह क्या ? | ||
+ | करता न शत्रु पर कर्ण दया ? | ||
+ | दाहक प्रचण्ड इसका बल है, | ||
+ | यह मनुज नहीं, कालानल है। | ||
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+ | ‘‘बड़वानल, यम या कालपवन, | ||
+ | करते जब कभी कोप भीषण | ||
+ | सारा सर्वस्व न लेते हैं, | ||
+ | उच्छिष्ट छोड़ कुछ देते हैं। | ||
+ | पर, इसे क्रोध जब आता है; | ||
+ | कुछ भी न शेष रह पाता है। | ||
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+ | बाणों का अप्रतिहत प्रहार, | ||
+ | अप्रतिम तेज, पौरूष अपार, | ||
+ | त्यों गर्जन पर गर्जन निर्भय, | ||
+ | आ गया स्वयं सामने प्रलय, | ||
+ | तू इसे रोक भी पायेगा ? | ||
+ | या खड़ा मूक रह जायेगा। | ||
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+ | ‘य महामत्त मानव-कुज्जर, | ||
+ | कैसे अशंक हो रहा विचर, | ||
+ | कर को जिस ओर बढ़ाता है? | ||
+ | पथ उधर स्वयं बन जाता है। | ||
+ | तू नहीं शरासन तानेगा, | ||
+ | अंकुश किसका यह मानेगा ? | ||
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11:52, 27 जुलाई 2012 के समय का अवतरण
पाकर प्रसन्न आलोक नया,
कौरव-सेना का शोक गया,
आशा की नवल तरंग उठी,
जन-जन में नयी उमंग उठी,
मानों, बाणों का छोड़ शयन,
आ गये स्वयं गंगानन्दन।
सेना समग्र हुकांर उठी,
‘जय-जय राधेय !’ पुकार उठी,
उल्लास मुक्त हो छहर उठा,
रण-जलधि घोष में घहर उठा,
बज उठी समर-भेरी भीषण,
हो गया शुरू संग्राम गहन।
सागर-सा गर्जित, क्षुभित घोर,
विकराल दण्डधर-सा कठोर,
अरिदल पर कुपित कर्ण टूटा,
धनु पर चढ़ महामरण छूटा।
ऐसी पहली ही आग चली,
पाण्डव की सेना भाग चली।
झंझा की घोर झकोर चली,
डालों को तोड़-मरोड़ चली,
पेड़ों की जड़ टूटने लगी,
हिम्मत सब की छूटने लगी,
ऐसा प्रचण्ड तूफान उठा,
पर्वत का भी हिल प्राण उठा।
प्लावन का पा दुर्जय प्रहार,
जिस तरह काँपती है कगार,
या चक्रवात में यथा कीर्ण,
उड़ने लगते पत्ते विशीर्ण,
त्यों उठा काँप थर-थर अरिदल,
मच गयी बड़ी भीषण हलचल।
सब रथी व्यग्र बिललाते थे,
कोलाहल रोक न पाते थे।
सेना का यों बेहाल देख,
सामने उपस्थित काल देख,
गरजे अधीर हो मधुसूदन,
बोले पार्थ से निगूढ़ वचन।
‘‘दे अचिर सैन्य का अभयदान,
अर्जुन ! अर्जुन ! हो सावधान,
तू नहीं जानता है यह क्या ?
करता न शत्रु पर कर्ण दया ?
दाहक प्रचण्ड इसका बल है,
यह मनुज नहीं, कालानल है।
‘‘बड़वानल, यम या कालपवन,
करते जब कभी कोप भीषण
सारा सर्वस्व न लेते हैं,
उच्छिष्ट छोड़ कुछ देते हैं।
पर, इसे क्रोध जब आता है;
कुछ भी न शेष रह पाता है।
बाणों का अप्रतिहत प्रहार,
अप्रतिम तेज, पौरूष अपार,
त्यों गर्जन पर गर्जन निर्भय,
आ गया स्वयं सामने प्रलय,
तू इसे रोक भी पायेगा ?
या खड़ा मूक रह जायेगा।
‘य महामत्त मानव-कुज्जर,
कैसे अशंक हो रहा विचर,
कर को जिस ओर बढ़ाता है?
पथ उधर स्वयं बन जाता है।
तू नहीं शरासन तानेगा,
अंकुश किसका यह मानेगा ?