"रश्मिरथी / षष्ठ सर्ग / भाग 10" के अवतरणों में अंतर
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+ | चलता हो अन्ध ऊध्र्व-लोचन, | ||
+ | जानता नहीं, क्या करता है, | ||
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+ | मानवता का फट जाता है। | ||
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+ | वासना-वह्नि से जो निकला, | ||
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+ | जब लोभ सिद्धि का आँखों पर, | ||
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+ | दुश्चिन्त्य कृत्य करवाता है। | ||
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+ | फिर क्या विस्मय, कौरव-पाण्डव | ||
+ | भी नहीं धर्म के साथ रहे ? | ||
+ | जो रंग युद्ध का है, उससे, | ||
+ | उनके भी अलग न हाथ रहे। | ||
+ | दोनों ने कालिख छुई शीश पर, | ||
+ | जय का तिलक लगाने को, | ||
+ | सत्पथ से दोनों डिगे, दौड़कर, | ||
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+ | दाहक कई दिवस बीते; | ||
+ | पर, विजय किसे मिल सकती थी, | ||
+ | जब तक थे द्रोण-कर्ण जीते ? | ||
+ | था कौन सत्य-पथ पर डटकर, | ||
+ | जो उनसे योग्य समर करता ? | ||
+ | धर्म से मार कर उन्हें जगत् में, | ||
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+ | जिसका हृदय न कँपता था ? | ||
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+ | भय से नाम न जपता था ? | ||
+ | कमलों के वन को जिस प्रकार | ||
+ | विदलित करते मदकल कुज्जर, | ||
+ | थे विचर रहे पाण्डव-दल में | ||
+ | त्यों मचा ध्वंस दोनों नरवर। | ||
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+ | संग्राम-बुभुक्षा से पीडि़त, | ||
+ | सारे जीवन से छला हुआ, | ||
+ | राधेय पाण्डवों के ऊपर | ||
+ | दारूण अमर्ष से जला हुआ; | ||
+ | इस तरह शत्रुदल पर टूटा, | ||
+ | जैसे हो दावानल अजेय, | ||
+ | या टूट पड़े हों स्वयं स्वर्ग से | ||
+ | उतर मनुज पर कात्र्तिकेय। | ||
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11:57, 27 जुलाई 2012 के समय का अवतरण
साधना को भूल सिद्धि पर जब
टकटकी हमारी लगती है,
फिर विजय छोड़ भावना और
कोई न हृदय में जगती है।
तब जो भी आते विघ्न रूप,
हो धर्म, शील या सदाचार,
एक ही सदृश हम करते हैं
सबके सिर पर पाद-प्रहार।
उतनी ही पीड़ा हमें नहीं,
होती है इन्हें कुचलने में,
जितनी होती है रोज़ कंकड़ो
के ऊपर हो चलने में।
सत्य ही, ऊध्र्व-लोचन कैसे
नीचे मिट्टी का ज्ञान करे ?
जब बड़ा लक्ष्य हो खींच रहा,
छोटी बातों का ध्यान करे ?
चलता हो अन्ध ऊध्र्व-लोचन,
जानता नहीं, क्या करता है,
नीच पथ में है कौन ? पाँव
जिसके मस्तक पर धरता है।
काटता शत्रु को वह लेकिन,
साथ ही धर्म कट जाता है,
फाड़ता विपक्षी को अन्तर
मानवता का फट जाता है।
वासना-वह्नि से जो निकला,
कैसे हो वह संयुग कोमल ?
देखने हमें देगा वह क्यों,
करूणा का पन्थ सुगम शीतल ?
जब लोभ सिद्धि का आँखों पर,
माँड़ी बन कर छा जाता है
तब वह मनुष्य से बड़े-बड़े
दुश्चिन्त्य कृत्य करवाता है।
फिर क्या विस्मय, कौरव-पाण्डव
भी नहीं धर्म के साथ रहे ?
जो रंग युद्ध का है, उससे,
उनके भी अलग न हाथ रहे।
दोनों ने कालिख छुई शीश पर,
जय का तिलक लगाने को,
सत्पथ से दोनों डिगे, दौड़कर,
विजय-विन्दु तक जाने को।
इस विजय-द्वन्द्व के बीच युद्ध के
दाहक कई दिवस बीते;
पर, विजय किसे मिल सकती थी,
जब तक थे द्रोण-कर्ण जीते ?
था कौन सत्य-पथ पर डटकर,
जो उनसे योग्य समर करता ?
धर्म से मार कर उन्हें जगत् में,
अपना नाम अमर करता ?
था कौन, देखकर उन्हें समर में
जिसका हृदय न कँपता था ?
मन ही मन जो निज इष्ट देव का
भय से नाम न जपता था ?
कमलों के वन को जिस प्रकार
विदलित करते मदकल कुज्जर,
थे विचर रहे पाण्डव-दल में
त्यों मचा ध्वंस दोनों नरवर।
संग्राम-बुभुक्षा से पीडि़त,
सारे जीवन से छला हुआ,
राधेय पाण्डवों के ऊपर
दारूण अमर्ष से जला हुआ;
इस तरह शत्रुदल पर टूटा,
जैसे हो दावानल अजेय,
या टूट पड़े हों स्वयं स्वर्ग से
उतर मनुज पर कात्र्तिकेय।