भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"रश्मिरथी / षष्ठ सर्ग / भाग 11" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामधारी सिंह "दिनकर"}} {{KKPageNavigation |पीछे...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
 
पंक्ति 8: पंक्ति 8:
 
}}
 
}}
 
<Poem>
 
<Poem>
 +
संघटित या कि उनचास मरूत
 +
कर्ण के प्राण में छाये हों,
 +
या कुपित सूय आकाश छोड़
 +
नीचे भूतल पर आये हों।
 +
अथवा रण में हो गरज रहा
 +
धनु लिये अचल प्रालेयवान,
 +
या महाकाल बन टूटा हो
 +
भू पर ऊपर से गरूत्मान।
 +
 +
बाणों पर बाण सपक्ष उड़े,
 +
हो गया शत्रुदल खण्ड-खण्ड,
 +
जल उठी कर्ण के पौरूष की
 +
कालानल-सी ज्वाला प्रचण्ड।
 +
दिग्गज-दराज वीरों की भी
 +
छाती प्रहार से उठी हहर,
 +
 +
सामने प्रलय को देख गये
 +
गजराजों के भी पाँव उखड़।
 +
 +
जन-जन के जीवन पर कराल,
 +
दुर्मद कृतान्त जब कर्ण हुआ,
 +
पाण्डव-सेना का हृास देख
 +
केशव का वदन विवर्ण हुआ।
 +
सोचने लगे, छूटेंगे क्या
 +
सबके विपन्न आज ही प्राण ?
 +
सत्य ही, नहीं क्या है कोई
 +
इस कुपित प्रलय का समाधान ?
 +
 +
‘‘है कहाँ पार्थ ? है कहाँ पार्थ ?’’
 +
राधेय गरजता था क्षण-क्षण।
 +
‘‘करता क्यों नही प्रकट होकर,
 +
अपने कराल प्रतिभट से रण ?
 +
क्या इन्हीं मूलियों से मेरी
 +
रणकला निबट रह जायेगी ?
 +
या किसी वीर पर भी अपना,
 +
वह चमत्कार दिखलायेगी ?
 +
 +
‘‘हो छिपा जहाँ भी पार्थ, सुने,
 +
अब हाथ समेटे लेता हूँ,
 +
सबके समक्ष द्वैरथ-रण की,
 +
मैं उसे चुनौती देता हूँ।
 +
हिम्मत हो तो वह बढ़े,
 +
व्यूह से निकल जरा सम्मुख आये,
 +
दे मुझे जन्म का लाभ और
 +
साहस हो तो खुद भी पाये।’’
 +
 +
पर, चतुर पार्थ-सारथी आज,
 +
रथ अलग नचाये फिरते थे,
 +
कर्ण के साथ द्वैरथ-रण से,
 +
शिष्य को बचाये फिरते थे।
 +
चिन्ता थी, एकघ्नी कराल,
 +
यदि द्विरथ-युद्ध में छूटेगी,
 +
पार्थ का निधन होगा, किस्मत,
 +
पाण्डव-समाज की फूटेगी।
 +
 +
नटनागर ने इसलिए, युक्ति का
 +
नया योग सन्धान किया,
 +
एकघ्नि-हव्य के लिए घटोत्कच
 +
का हरि ने आह्वान किया।
 +
बोले, ‘‘बेटा ! क्या देख रहा ?
 +
हाथ से विजय जाने पर है,
 +
अब सबका भाग्य एक तेरे
 +
कुछ करतब दिखलाने पर है।
 +
 +
‘‘यह देख, कर्ण की विशिख-वृष्टि
 +
कैस कराल झड़ लाती है ?
 +
गो के समान पाण्डव-सेना
 +
भय-विकल भागती जाती है।
 +
तिल पर भी भूिम न कहीं खड़े
 +
हों जहाँ लोग सुस्थिर क्षण-भर,
 +
सारी रण-भू पर बरस रहे
 +
एक ही कर्ण के बाण प्रखर।
  
 
</Poem>
 
</Poem>

12:10, 27 जुलाई 2012 के समय का अवतरण

संघटित या कि उनचास मरूत
कर्ण के प्राण में छाये हों,
या कुपित सूय आकाश छोड़
नीचे भूतल पर आये हों।
अथवा रण में हो गरज रहा
धनु लिये अचल प्रालेयवान,
या महाकाल बन टूटा हो
भू पर ऊपर से गरूत्मान।

बाणों पर बाण सपक्ष उड़े,
हो गया शत्रुदल खण्ड-खण्ड,
जल उठी कर्ण के पौरूष की
कालानल-सी ज्वाला प्रचण्ड।
दिग्गज-दराज वीरों की भी
छाती प्रहार से उठी हहर,

सामने प्रलय को देख गये
गजराजों के भी पाँव उखड़।

जन-जन के जीवन पर कराल,
दुर्मद कृतान्त जब कर्ण हुआ,
पाण्डव-सेना का हृास देख
केशव का वदन विवर्ण हुआ।
सोचने लगे, छूटेंगे क्या
सबके विपन्न आज ही प्राण ?
सत्य ही, नहीं क्या है कोई
इस कुपित प्रलय का समाधान ?

‘‘है कहाँ पार्थ ? है कहाँ पार्थ ?’’
राधेय गरजता था क्षण-क्षण।
‘‘करता क्यों नही प्रकट होकर,
अपने कराल प्रतिभट से रण ?
क्या इन्हीं मूलियों से मेरी
रणकला निबट रह जायेगी ?
या किसी वीर पर भी अपना,
वह चमत्कार दिखलायेगी ?
 
‘‘हो छिपा जहाँ भी पार्थ, सुने,
अब हाथ समेटे लेता हूँ,
सबके समक्ष द्वैरथ-रण की,
मैं उसे चुनौती देता हूँ।
हिम्मत हो तो वह बढ़े,
व्यूह से निकल जरा सम्मुख आये,
दे मुझे जन्म का लाभ और
साहस हो तो खुद भी पाये।’’

पर, चतुर पार्थ-सारथी आज,
रथ अलग नचाये फिरते थे,
कर्ण के साथ द्वैरथ-रण से,
शिष्य को बचाये फिरते थे।
चिन्ता थी, एकघ्नी कराल,
यदि द्विरथ-युद्ध में छूटेगी,
पार्थ का निधन होगा, किस्मत,
पाण्डव-समाज की फूटेगी।

नटनागर ने इसलिए, युक्ति का
नया योग सन्धान किया,
एकघ्नि-हव्य के लिए घटोत्कच
का हरि ने आह्वान किया।
बोले, ‘‘बेटा ! क्या देख रहा ?
हाथ से विजय जाने पर है,
अब सबका भाग्य एक तेरे
कुछ करतब दिखलाने पर है।

‘‘यह देख, कर्ण की विशिख-वृष्टि
कैस कराल झड़ लाती है ?
गो के समान पाण्डव-सेना
भय-विकल भागती जाती है।
तिल पर भी भूिम न कहीं खड़े
हों जहाँ लोग सुस्थिर क्षण-भर,
सारी रण-भू पर बरस रहे
एक ही कर्ण के बाण प्रखर।