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"चाहता हूँ / बोधिसत्व" के अवतरणों में अंतर

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जहाँ नहीं होता<br>
 
जहाँ नहीं होता<br>
 
मैं वहीं सब कुछ पाना चाहता हूँ,<br><br>
 
मैं वहीं सब कुछ पाना चाहता हूँ,<br><br>
 
 
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|रचनाकार=बोधिसत्व
 
|संग्रह=
 
}}
 
 
 
सूर्य उगा वह मानो मेरा भाग्य उगा !<br>
 
उसे जानते मैं ने पति को<br>
 
अपने वश में किया,<br>
 
विजयिनी शक्ति रूप हूँ,<br>
 
मैं मस्तक की भाँति मुख्य हूँ ध्वजा-रूप हूँ !<br><br>
 
 
मेरा पति मेरी सहमति को<br>
 
सर्वोपरि महत्व देता है,<br>
 
मेरे पुत्र शत्रुहंता हैं, पुत्री रानी;<br><br>
 
 
मेरा पति मेरे प्रति उत्तम श्लोक-प्रशंसा करता है;<br>
 
अत: हमारा दाम्पत्य जीवन सुंदर है,<br>
 
सूर्योदय के साथ हमारा<br>
 
भाग्य उदय होता है प्रतिदिन !<br><br>
 
 
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|संग्रह=
 
}}
 
 
 
छोटी-छोटी बातों पर<br>
 
नाराज हो जाता हूँ ,<br>
 
भूल नहीं पाता हूँ कोई उधार,<br>
 
जोड़ता रहता हूँ<br>
 
पाई-पाई का हिसाब<br><br>
 
 
छोटा आदमी हूँ<br>
 
बड़ी बातें कैसे करूँ ?<br><br>
 
 
माफी मांगने पर भी<br>
 
माफ़ नहीं कर पाता हूँ<br>
 
छोटे-छोटे दुखों से उबर नहीं पाता हूँ ।<br><br>
 
 
पाव भर दूध बिगड़ने पर<br>
 
कई दिन फटा रहता है मन,<br>
 
कमीज पर नन्हीं खरोंच<br>
 
देह के घाव से ज्यादा<br>
 
देती है दुख ।<br><br>
 
 
एक ख़राब मूली<br>
 
बिगाड़ देती है खाने का स्वाद<br>
 
एक चिट्ठी का जवाब नहीं<br>
 
देने को याद रखता हूं उम्र भर<br><br>
 
 
छोटा आदमी और कर ही क्या सकता हूँ<br>
 
सिवाय छोटी-छोटी बातों को याद रखने के ।<br><br>
 
 
सौ ग्राम हल्दी,<br>
 
पचास ग्राम जीरा<br>
 
छींट जाने से तबाह नहीं होती ज़िंदगी,<br>
 
पर क्या करूँ<br>
 
छोटे-छोटे नुकसानों को गाता रहता हूँ<br>
 
हर अपने बेगाने को सुनाता रहता हूँ<br>
 
अपने छोटे-छोटे दुख ।<br><br>
 
 
क्षुद्र आदमी हूँ<br>
 
इन्कार नहीं करता,<br>
 
एक छोटा सा ताना,<br>
 
एक मामूली बात,<br>
 
एक छोटी सी गाली<br>
 
एक जरा सी घात<br>
 
काफी है मुझे मिटाने के लिए,<br><br>
 
 
मैं बहुत कम तेल वाला दीया हूँ<br>
 
हल्की हवा भी बहुत है<br>
 
मुझे बुझाने के लिए।<br><br>
 
 
छोटा हूँ,<br>
 
पर रहने दो,<br>
 
छोटी-छोटी बातें कहता हूँ- कहने दो ।<br><br>
 
 
 
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|संग्रह=
 
}}
 
 
अल्लापुर<br>
 
इलाहाबाद का वह मुहल्ला<br>
 
जहाँ सायकिल चलाते या<br>
 
पैदल हम घूमा करते थे।<br><br>
 
 
वहीं रहती थीं वो लड़कियाँ<br>
 
जिन्हें देखने के लिए<br>
 
फेरे लगाते थे हम दिन भर।<br><br>
 
 
मटियारा रोड पर रहती थीं<br><br>
 
पूनम, रीता, ममता, वंदना<br>
 
नेताजी रोड पर<br>
 
चेतना, कविता, शिवानी।<br>
 
कस्तूरबा लेन में रहती थीं<br>
 
ऋचा, सुमेधा, अंजना, संध्या।<br><br>
 
 
बाघम्बरी रोड पर रहती थी<br>
 
एक लड़की<br>
 
जो अक्सर आते-जाते दिखती थी<br>
 
वह शायद प्राइवेट पढ़ती थी।<br><br>
 
 
बड़ी आँखे-बड़े बाल<br>
 
अजब चेहरा मंद चाल।<br><br>
 
 
दिन भर खड़ी रहती थी छत पर<br>
 
कपड़े सुखाती अक्सर,<br>
 
हजार कोशिशों के बाद भी<br>
 
नहीं पता चला<br>
 
उसका नाम - पोस्ट ऑफिस में करता था उसका पिता काम<br>
 
हालाँकि<br>
 
यह वह वक्त था जब हम<br>
 
लड़कियों के नोट बुक के सहारे<br>
 
जान लेते थे उनके सपनों को भी।<br><br>
 
 
हजार कोशिशों पर<br>
 
पानी फिरा यहाँ......<br><br>
 
 
बाद में पता चला<br>
 
वह ब्याही गई एक तहसीलदार से<br>
 
शिवानी की शादी हुई वकील से<br>
 
वंदना की दारोगा से, रीता की बैंक क्लर्क से,<br>
 
चेतना की कस्टम इंस्पेक्टर से,<br>
 
संध्या विदा हुई रेल टी.टी. के साथ<br>
 
सुमेधा किसी डॉक्टर के साथ<br>
 
ऋचा किसी व्यापारी की हुई ब्याहता<br>
 
अंजना किसी कम्पाउंडर की,<br>
 
पूनम की शादी हुई किसी दूहाजू कानूनगो से।<br><br>
 
 
ममता की शादी नहीं हुई<br>
 
बहुत दिनों.....<br>
 
देखने-दिखाने के आगे बात नहीं बढ़ी...।<br><br>
 
 
कई साल बीत गये हैं<br>
 
टूट गया है इलाहाबाद से नाता<br>
 
छूट गया है अल्लापुर....<br>
 
दूर संचार के हजारों इंतजाम हैं पर<br>
 
नहीं मिलती ममता की कोई खबर,<br>
 
उसकी शादी हुई या बैठी है घर,<br>
 
अब तो किसी से पूछते भी लगता है डर।<br><br>
 
 
कैसा समाज है, कैसा समय है,<br>
 
जहाँ मुहल्ले की लड़कियों का<br>
 
हाल-चाल जानना गुनाह है,<br>
 
व्यभिचार है,<br>
 
पर क्या ममता के हाल-चाल की<br>
 
मुझे सचमुच दरकार है ?<br>
 
 
 
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|संग्रह=
 
}}
 
 
 
 
तमाशा हो रहा है<br>
 
और हम ताली बजा रहे हैं<br><br>
 
 
मदारी<br>
 
पैसे से पैसा बना रहा है<br>
 
हम ताली बजा रहे हैं<br><br>
 
 
मदारी साँप को<br>
 
दूध पिला रहा हैं<br>
 
हम ताली बजा रहे हैं<br><br>
 
 
मदारी हमारा लिंग बदल रहा है<br>
 
हम ताली बजा रहे हैं<br><br>
 
 
अपने जमूरे का गला काट कर<br>
 
मदारी कह रहा है-<br>
 
'ताली बजाओ जोर से'<br>
 
और हम ताली बजा रहे हैं।<br><br>
 
 
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|संग्रह=
 
}}
 
 
आज पंद्रह अगस्त<br>
 
ईसवी सन दो हजार सात है<br>
 
मैं घर से अंधेरी के लिए निकला हूँ<br>
 
कुछ काम है<br>
 
अभी मिठ चौकी पर पहुँचा हूँ भीड़ है<br>
 
ट्रैफिक जाम है<br>
 
घिरे हैं गहरे काले बादल आसमान में<br>
 
कुछ देर पहले बरसा है पानी<br>
 
सड़क अभी तक गीली है।<br><br>
 
 
 
बहुत सारे बच्चों<br>
 
छोटे-छोटे बच्चों के साथ<br>
 
एक बुढ़िया भी बेच रही है तिरंगे।<br>
 
एक दस साल का लड़का<br>
 
एक सात साल की लड़की<br>
 
एक तीस पैंतीस का नौ जवान बेच रहा है झंडा<br>
 
इन सब के साथ ही<br>
 
यह बुढ़िया भी बेच रही है यह नया आइटम।<br><br>
 
 
 
उम्र होगी पैंसठ से सत्तर के बीच<br>
 
आँख में चमक से ज्यादा है कीच<br>
 
नंगे पाँव में फटी बिवाई है<br>
 
यह किसकी बहन बेटी माई है ?<br>
 
यह किस घर पैदा हुई<br>
 
कैसे कैसे यहाँ तक आई है ?<br><br>
 
 
 
परसों तक बेच रही थी<br>
 
टोने-टोटके से बचानेवाला नीबू-मिर्च<br>
 
उसके पहले कभी बेचती थी कंघी<br>
 
कभी चूरन कभी गुब्बारे।<br><br>
 
 
 
कई दाम के तिरंगे हैं इसके पास<br>
 
कुछ एकदम सस्ते कुछ अच्छे खास<br><br>
 
 
उस पर भी तैयार है वह मोल-भाव के लिए<br>
 
हर एक से गिड़गिड़ाती<br>
 
कभी दिखा कर पिचका पेट<br>
 
लगा रही है खरीदने की गुहार<br>
 
कभी दे रही है बुढ़ापे पर तरस की सीख<br>
 
ऐसे जैसे झंडे के बदले<br>
 
मांग रही है भीख।<br>
 
 
 
मैं आगे निकल आया हूँ<br>
 
पीछे घिरे हैं काले-काले बादल<br>
 
बरस सकता है पानी<br>
 
भीड़ में अलग से सुनाई दे रही है<br>
 
अब भी बुढ़िया की गुहार थकी पुरानी।<br><br>
 
 
सड़क के कीचड़ पांक में सनी बुढ़िया<br>
 
कलेजे से लगा कर <br>
 
बचा रही रही होगी झंडे की चमक को<br>
 
और पुकार रही होगी लगातार <br>
 
हर एक को-<br><br>
 
 
‘ले लो तिरंगा प्यारा ले लो’<br><br>
 
 
 
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|रचनाकार=बोधिसत्व
 
|संग्रह=
 
}}
 
 
बाबा नागार्जुन !<br>
 
तुम पटने, बनारस, दिल्ली में<br>
 
खोजते हो क्या<br>
 
दाढ़ी-सिर खुजाते<br>
 
कब तक होगा हमारा गुजर-बसर<br>
 
टुटही मँड़ई में लाई-नून चबाके।<br><br>
 
 
तुम्हारी यह चीलम सी नाक<br>
 
चौड़ा चेहरा-माथा<br>
 
सिझी हुई चमड़ी के नीचे<br>
 
घुमड़े खूब तरौनी गाथा।<br><br>
 
 
तुम हो हमारे हितू, बुजुरुक<br>
 
सच्चे मेंठ<br>
 
घुमंता-फिरंता उजबक्–चतुर<br>
 
मानुष ठेंठ।<br><br>
 
 
मिलना इसी जेठ-बैसाख<br>
 
या अगले अगहन,<br>
 
देना हमें हड्डियों में<br>
 
चिर-संचित धातु गहन।<br>
 
 
 
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|रचनाकार=बोधिसत्व
 
|संग्रह=
 
}}
 
 
(कलकत्ता में मिले बंगाली विद्वान परिमलेंदु ने यह वृत्तांत सुनाया)<br><br>
 
 
बरस रहा था देर से पानी<br>
 
भीगने से बचने के लिए मैं<br>
 
रुका था दक्षिण कलकत्ता में<br>
 
एक पेड़ के नीचे,<br>
 
वहीं आए पानी से बचते-बचाते<br>
 
परिमलेंदु बाबू।<br><br>
 
 
परिमलेंदु बाबू<br>
 
टैगोर के भक्त थे<br>
 
बात-चीत के बीच<br>
 
उन्हों नें बताया टैगोर के बारे में एक किस्सा<br>
 
आप भी सुनें।<br><br>
 
 
कभी बीरभूम में चार औरतें रहतीं थीं<br>
 
उन्हें देख कर लगता था कि वे या तो<br>
 
किसी मेले में जा रहीं हैं<br>
 
या लौट रहीं हैं किसी जंगल से।<br><br>
 
 
वे चारों हरदम साथ रहतीं थीं<br>
 
उनकी आँखें नहीं थीं<br>
 
वे बनीं थीं मिट्टी में कपास और भूँसी मिला कर<br>
 
उनसे आती थी भुने अन्न की महक।<br><br>
 
 
चारों दिखतीं थी एक सी<br>
 
एक सी नाक<br>
 
एक से हाथ-पांव-कान<br>
 
एक सी थी बोली उनकी।<br><br>
 
 
कौन था उनका जनक<br>
 
कौन भर्ता, कौन पुत्र कौन जननी कौन पुत्री<br>
 
नहीं जानतीं थीं वे<br>
 
उन्हें तो यह भी नहीं पता था ठीक-ठीक<br>
 
कि किसने छीन<br>
 
लीं उनकी आँखें।<br><br>
 
 
पर उन्हें यह पता था कि<br>
 
उनके पीछे-पीछे चलते हैं ठाकुर<br>
 
वही ठाकुर जिन्हें सब<br>
 
गुरुदेव कह कर बुलाती है<br>
 
वही द्वारका ठाकुर का आखिरी बेटा<br>
 
वही जिसे हाथी पाव है<br>
 
तो वे चारों औरतें<br>
 
टैगोर के लिए थोड़ा धीमें चलतीं थीं वे।<br><br>
 
 
उन औरतों की आवाज के सहारे<br>
 
टैगोर खोजते-पाते थे रास्ता<br>
 
टैगोर भी हो चले थे अंधे<br>
 
लोग हैरान थे<br>
 
टैगोर के अचानक अंधेपन पर।<br><br>
 
 
लोग टैगोर को उन औरतों से अलग<br>
 
ले जाना चाहते थे<br>
 
गाड़ी में बैठा कर<br>
 
पर टैगोर<br>
 
उन औरतों की आवाज के अलावा<br>
 
सुन नहीं रहे थे और कोई आवाज।<br><br>
 
 
जब कभी टैगोर छूट जाते थे बहुत पीछे<br>
 
किसी बहाने रुक कर वे चारों<br>
 
उनके आने का इंतजार करतीं थीं।<br><br>
 
 
जोड़ा शांको और बीरभूम के लोग बताते हैं<br>
 
कि जीवन भर टैगोर चलते रहे<br>
 
उन चारों औरतों की आवाज के सहारे<br>
 
जब बिछुड़ जाते थे उन औरतों से तो<br>
 
आव-बाव बकने लगते थे<br>
 
बिना उन औरतों के उन्हे<br>
 
कल नहीं पड़ता था<br>
 
अब यह सब कितना सच है<br>
 
कितना गढ़ंत यह कौन विचारे।<br><br>
 
 
यह जरूर था कि<br>
 
अक्सर पाए जाते थे<br>
 
टैगोर उन अंधी औरतों के पीछे-पीछे चलते<br>
 
उनके गुन गाते<br>
 
बतियाते उनके बारे में।<br>
 
 
बूढ़े परिमलेंदु की माने तो<br>
 
वे औरते जीवन भर नहीं गईं कहीं ठाकुर<br>
 
को छोड़ कर<br>
 
ठाकुर ही उन औरतों का जीवन थे<br>
 
और वे औरतें ही ठाकुर के चिथड़े मन की<br>
 
सीवन थीं।<br><br>
 
 
जब नहीं रहे टैगोर<br>
 
तो महीनों वे चारों ठाकुर की खोज में<br>
 
घूमती रहीं बीरभूम के खेतों में<br>
 
रुक-रुक कर चलतीं थी रास्तों में कि<br>
 
आ सकता है अंधा गुरु<br>
 
पर न आए ठाकुर<br>
 
और वे अंधी औरतें पहुँच गईं<br>
 
पता नहीं कब<br>
 
सोना गाछी की गलियों में,<br><br>
 
 
उन्हें तो यह भी पता नहीं चल पाया<br>
 
कि उनका ठाकुर कब कहाँ<br>
 
खो गया<br>
 
कहाँ सो गया उनका सहचर<br>
 
कल सुबह आता हूँ कह कर<br>
 
नहीं आया वह<br>
 
जिसके होने से वे सनाथ थीं।<br><br>
 
 
पानी बरसना बंद हुआ जान कर परिमलेंदु बाबू<br>
 
बात अधूरी छोड़ गए<br>
 
मैंने शलभ श्रीराम सिंह से पूछा तो वे<br>
 
रोने लगे<br>
 
कहा सारी बात सच है<br>
 
पर हुआ था यह सब<br>
 
राम कृष्ण परम हंस के साथ,<br>
 
वे चारों अंधी नहीं थीं<br>
 
वहाँ के किसी जमींदार ने फोड़ दीं थीं<br>
 
उनकी आँखें काट लिए थे हाथ<br>
 
खेतों की रखवाली ठीक से ना करने पर।<br>
 
अंधी होने के बाद वे<br>
 
हरदम रहीं बेलूर मठ में<br>
 
परम हंस के साथ।<br>
 
उसके बाद परम हंस ही थे<br>
 
उनकी आँखें और हाथ।<br>
 
 
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पिता थोड़े दिन और जीना चाहते थे<br>
 
वे हर मिलने वाले से कहते कि<br>
 
बहुत नहीं दो साल तीन साल और मिल जाता बस।<br><br>
 
 
वे जिंदगी को ऐसे माँगते थे जैसे मिल सकती हो<br>
 
किराने की दुकान पर।<br><br>
 
 
उनकी यह इच्छा जान गए थे उनके डॉक्टर भी<br>
 
सब ने पूरी कोशिश की पिता को बचाने की<br>
 
पर कुछ भी काम नहीं आया।<br><br>
 
 
माँ ने मनौतियाँ मानी कितनी<br>
 
मैहर की देवी से लेकर काशी विश्वनाथ तक<br>
 
सबसे रोती रही वह अपने सुहाग को<br>
 
ध्रुव तारे की तरह<br>
 
अटल करने के लिए<br>
 
पर उसकी सुनवाई नहीं हुई कहीं...।<br><br>
 
 
1997 में<br>
 
जाड़ों के पहले पिता ने छोड़ी दुनिया<br>
 
बहन ने बुना था उनके लिए लाल इमली का<br>
 
पूरी बाँह का स्वेटर<br>
 
उनके सिरहाने बैठ कर<br>
 
डालती रही स्वेटर<br>
 
में फंदा कि शायद<br>
 
स्वेटर बुनता देख मौत को आए दया,<br>
 
भाई ने खरीदा था कंबल<br>
 
पर सब कुछ धरा रह गया<br>
 
घर पर ......<br><br>
 
 
बाद में ले गए महापात्र सब ढोकर।<br><br>
 
 
पिता ज्यादा नहीं 2001 कर जीना चाहते थे<br>
 
दो सदियों में जीने की उनकी साध पुजी नहीं<br>
 
1936 में जन्में पिता जी तो सकते थे 2001 तक<br>
 
पर देह ने नहीं दिया उनका साथ<br>
 
दवाएँ उन्हें मरने से बचा न सकीं ।<br><br>
 
 
इच्छाएँ कई और थीं पिता की<br>
 
जो पूरी नहीं हुईं<br>
 
कई और सपने थे ....अधूरे....<br>
 
वे तमाम अधूरे सपनों के साथ भी जीने को तैयार थे<br>
 
पर नहीं मिले उन्हें तीन-चार साल<br>
 
हार गए पिता<br>
 
जीत गया काल ।<br><br><br>
 
 
(रचना तिथि- 13 अक्टूबर 2007}br><br>
 
 
 
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|रचनाकार=बोधिसत्व
 
|संग्रह=
 
}}
 
 
 
 
वह बहुत पुरानी एक रात<br>
 
जिसमें सम्भव हर एक बात,<br>
 
जिसमें अंधड़ में छुपी वात,<br>
 
सोई चूल्हे में जली रात,<br>
 
वह बहुत पुरानी बिकट रात ।<br><br>
 
 
जिसमें हाथों के पास हाथ,<br>
 
जिसमें माथे को छुए माथ,<br>
 
जिसमें सोया वह वृद्ध ग्राम,<br>
 
महुआ,बरगद,पीपल व आम,<br>
 
इक्का-दुक्का जलते चिराग<br>
 
पत्तल पर परसे भोग-भाग ।<br><br>
 
 
वह बहुत पुरानी एक बात,<br>
 
जिसमें धरती को नवा माथ,<br>
 
वो बीज बो रहे चपल हाथ,<br>
 
वो रस्ते जिन पर एक साथ<br>
 
जाता था दिन आती थी रात<br>
 
वह बहुत पुरानी एक रात ।<br><br>
 

00:50, 22 अक्टूबर 2007 के समय का अवतरण

बड़ी अजीब बात है
जहाँ नहीं होता
मैं वहीं सब कुछ पाना चाहता हूँ,

वहीं पाना चाहता हूँ
मैं अपने सवालों का जवाब
जहाँ लोग वर्षों से चुप हैं

चुप हैं कि
उन्हें बोलने नहीं दिया गया
चुप हैं कि
क्या होगा बोल कर
चुप हैं कि
वे चुप्पीवादी हैं,

मैं उन्हीं आँखों में
अपने को खोजता हूँ
जिनमें कोई भी आकृति
नहीं उभरती

मैं उन्हीं आवाज़ों में
चाहता हूँ अपना नाम
जिनमें नहीं रखता मायने
नामों का होना न होना,

मैं उन्ही का साथ चाहता हूँ
जो भूल जाते हैं
मिलने के ठीक बाद
कि कभी मिले थे किसी से।

बड़ी अजीब बात है
जहाँ नहीं होता
मैं वहीं सब कुछ पाना चाहता हूँ,