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"कदंब कालिंदी (दूसरा वाचन) / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर

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पार-धीरज-भरी
 
पार-धीरज-भरी
 
फिर वह रही वंशी टेर!
 
फिर वह रही वंशी टेर!
कुछ तो टूटे
 
मिलना हो तो कुछ तो टूटे
 
कुछ टूटे तो मिलना हो
 
कहने का था, कहा नहीं
 
चुप ही कहने में क्षम हो
 
इस उलझन को कैसे समझें
 
जब समझें तब उलझन हो
 
बिना दिये जो दिया उसे तुम
 
बिना छुए बिखरा दो-लो!
 
  
 
'''नयी दिल्ली, सितम्बर, 1980'''
 
'''नयी दिल्ली, सितम्बर, 1980'''
 
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16:28, 10 अगस्त 2012 के समय का अवतरण

अलस कालिन्दी-कि काँपी
टेरी वंशी की
नदी के पार।
कौन दूभर भार अपने-आप
झुक आयी कदम की डार
धरा पर बरबस झरे दो फूल।
द्वार थोड़ा हिले-
झरे, झपके राधिका के नैन
अलक्षित टूट कर
दो गिरे तारक बूँद
फिर-उसी बहती नदी का
वही सूना कूल!-
पार-धीरज-भरी
फिर वह रही वंशी टेर!

नयी दिल्ली, सितम्बर, 1980