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"निर्वासित औरत की कविताएँ / लाल्टू" के अवतरणों में अंतर

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चुपचाप प्यार
 
चुपचाप प्यार आता है.
 
 
आता ही रहता है निरंतर
 
हालांकि हर ओर अंधेरा
 
धूप भरी दोपहर में भी
 
शिशु की शरारती मुस्कान ले
 
बार-बार चुपचाप प्यार आता है.
 
 
रेंग के आता ऊपर या नीचे से
 
शरीर पर मन पर चढ़ जाता
 
जहाँ कहीं भी बंजर, सीने में खिल उठता
 
कमज़ोर दिल की धड़कनों पर महक बन छाता है.
 
 
बेवजह आते हैं फिर जलजले
 
आती है चाह
 
फूल पौधों हवा में समाने की, अंजान पथों
 
पर भटका पथिक बन जाने की
 
ओ पेड़, ओ हवाओं, मुझे अपनी बाहों में ले लो
 
मैं प्रेम कविताओं में डूब चला हूँ
 
 
आता है बेख़बर बेहिस प्यार जब
 
पशु-पक्षी भी सुबकते हैं
 
सुख की सिसकियों में बार-बार
 
चुपचाप प्यार आता है.
 
 
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दो न
 
 
दो न, दे दो न मुझे सारे दुख
 
 
आज नहीं तो कल बारिश होगी
 
धमनियों को निचोड़ धो डालूँगा
 
अपने तुम्हारे आँसू
 
कागज़ की नौका पर दुखों का ढेर बहा दूँगा
 
 
वर्षा थमते ही ले आऊँगा अरमानों की बहार
 
जिसमें सुबह शाम बस प्यार और प्यार.
 
 
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उसे देखा
 
 
खिलने को जन्मा
 
दिन
 
मुरझाता
 
मैंने देखा
 
उसे देखा
 
दिन
 
खिलने को जन्मा
 
 
दिन जन्मा
 
मैं एक बार फिर जन्मा
 
उसे देखा
 
देखा चराचर
 
 
खिल रहे
 
अपने-अपने दुखों में बराबर
 
दिन खिलता
 
रोता
 
मैंने देखा
 
 
दिन
 
खिलने को जन्मा.
 
 
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तीन सौ युवा लड़कियाँ
 
दबीं मलबे के नीचे
 
 
तीन सौ युवा लड़कियों
 
क्या था तुम्हारे मन में
 
उन आख़िरी क्षणों में
 
 
तीन सौ युवा लड़कियों
 
तुम डर रहीं थीं कि तुम्हारे
 
जाने-जानाँ का क्या हश्र है
 
 
तीन सौ युवा लड़कियों
 
तुमने चीख़कर अल्लाह को पुकारा
 
वह कहीं नहीं है
 
 
तीन सौ युवा लड़कियों
 
तुमने चीख़कर अम्मा को पुकारा
 
वह रो रही अपनी पीड़ा के भार तले
 
 
तीन सौ युवा लड़कियों
 
तुम्हारे अब्बा पहली बार रो रहे हैं
 
 
तीन सौ युवा लड़कियों
 
मलबे के नीचे दबी हुईं
 
 
कुलपति ने भेजा संदेश
 
होस्टल के मलबे में
 
दबी पड़ी हैं
 
तीन सौ युवा लड़कियाँ.
 
 
(संदर्भ-कश्मीर में भूकंप)
 
 
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18:19, 15 अक्टूबर 2007 के समय का अवतरण


(बांग्लादेश की प्रख्यात लेखिका तसलीमा नसरीन पर हैदराबाद में पुस्तक लोकार्पण के दौरान कट्टरपंथियों ने हमला किया। इस शर्मनाक घटना से आहत मैं इस बेहूदा हरकत की निंदा करता हूँ। जैसा कि तसलीमा ने ख़ुद कहा है ये लोग भारत की बहुसंख्यक जनता का हिस्सा नहीं हैं, जो वैचारिक स्वाधीनता और विविधता का सम्मान करती है। तसलीमा को मैं नहीं जानता। पर हर तरक्कीपसंद इंसान की तरह मुझे उनसे बहुत प्यार है। १९९५ में बांग्ला भाषा की 'देश' नामक पत्रिका में तसलीमा की सोलह कविताएँ प्रकाशित हुईं थीं। उन्हें पढ़कर मैंने यह कविता लिखी थी।)


मैं हर वक्त कविताएँ नहीं लिख सकता
दुनिया में कई काम हैं । कई सभाओं से लौटता हूँ
कई लोगों से बचने की कोशिश में थका हूँ
आज वैसे भी ठंड के बादल सिर पर गिरते रहे

पर पढ़ी कविताएँ तुम्हारी तस्लीमा
सोलह कविताएँ निर्वासित औरत की
तुम्हारी कल्पना करता हूँ तुम्हारे लिखे देशों में

जैसे तुमने देखा ख़ुद को एक से दूसरा देश लाँघते हुए
जैसे चूमा ख़ुद को भीड़ में से आए कुछेक होंठों से

देखता हूँ तुम्हें तस्लीमा
पैंतीस का तुम्हारा शरीर
सोचता हूँ बार-बार
कविता न लिख पाने की यातना में
ईर्ष्या अचंभा पता नहीं क्या-क्या
मन में होता तुम्हें सोचकर

एक ही बात रहती निरंतर
चाहत तुम्हें प्यार करने की जी भर।