"आयामों के इन्द्रधनुष / रामस्वरूप परेश" के अवतरणों में अंतर
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किसी की विवशता पे हंस दो भले | किसी की विवशता पे हंस दो भले | ||
गुजरती है जिस पर वही जानता है | | गुजरती है जिस पर वही जानता है | | ||
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+ | मृदु जुन्हाई रजत शर से प्राण-बाला तिलमिलाई | | ||
+ | हर विवश मुस्कान पर शत वेदनाएं खिलखिलाई | | ||
+ | नयन निर्झर में घुली हैं स्वप्न की छवियाँ मनोहर | ||
+ | ह्रदय-दर्पण में कभी जब सुधि तुम्हारी झिलमिलाई | | ||
+ | [६] | ||
+ | कारवां की धूल पर हम शीश धुनते रह गए | | ||
+ | हम तो अपनों की कमी का जाल बुनते रह गये | | ||
+ | आदमी के जनाजे में भी न हो सके शरीक | ||
+ | अफ़सोस कि पत्थर के लिए फूल चुनते रह गये | | ||
+ | [७] | ||
+ | जमाने से मिले अभिशाप कब वरदान बन जायेँ | | ||
+ | न जाने कौन-सी पीड़ा मधुर मुस्कान बन जायेँ | | ||
+ | अत: मैं हर गली की धूल को मस्तक नवाता हूँ | ||
+ | न जाने कौन-सा रज-कण मेरा भगवान बन जायेँ | | ||
+ | [८] | ||
+ | दर्द जागा तो गीतों से सुलाया न गया | | ||
+ | चाँद धरती पे इशारों से बुलाया न गया | | ||
+ | लाख कोशिश हुई सुधियों को भुलाने की | ||
+ | जब कोई याद मुझे आया तो भुलाया न गया | | ||
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23:17, 22 अक्टूबर 2012 का अवतरण
[१]
मेरे माथे का हिम किरीट, ऊंचा नगराज हिमालय है |
हर प्रीत भरे उर का परिचय बस ताजमहल ही में लय है |
मेरी भृकुटि में महा प्रलय मेरी मुस्कानों में अमृत
मैं तो इस भारत की मांटी मेरा इतना सा परिचय है |
[२]
जब-जब स्वतन्त्रता के पट में कोई अंगार सजाता है |
शान्ति सुहागिन के कोई शोणित से हाथ रचाता है |
भिन्न- भिन्न हैं जाति धर्म पर जब स्वदेश पर संकट हो
मन्दिर बढ़कर मस्जिद के माथे पर तिलक लगाता है |
[३]
ऐसा गीत उचार की जिससे कुछ अँधियारा कम हो जाये |
ईश्वर की पाषाणी मूरत की भी आंखे नम हो जायें |
द्वार-द्वार पर दीप जलाकर जग का तिमिर भगाने वाले
बनकर स्वयं दीप जल जिससे हर मावस पूनम हो जाये |
[४]
मनुज मनुज को नहीं मानता है |
ईमान क्या वह नहीं जानता है |
किसी की विवशता पे हंस दो भले
गुजरती है जिस पर वही जानता है |
[५]
मृदु जुन्हाई रजत शर से प्राण-बाला तिलमिलाई |
हर विवश मुस्कान पर शत वेदनाएं खिलखिलाई |
नयन निर्झर में घुली हैं स्वप्न की छवियाँ मनोहर
ह्रदय-दर्पण में कभी जब सुधि तुम्हारी झिलमिलाई |
[६]
कारवां की धूल पर हम शीश धुनते रह गए |
हम तो अपनों की कमी का जाल बुनते रह गये |
आदमी के जनाजे में भी न हो सके शरीक
अफ़सोस कि पत्थर के लिए फूल चुनते रह गये |
[७]
जमाने से मिले अभिशाप कब वरदान बन जायेँ |
न जाने कौन-सी पीड़ा मधुर मुस्कान बन जायेँ |
अत: मैं हर गली की धूल को मस्तक नवाता हूँ
न जाने कौन-सा रज-कण मेरा भगवान बन जायेँ |
[८]
दर्द जागा तो गीतों से सुलाया न गया |
चाँद धरती पे इशारों से बुलाया न गया |
लाख कोशिश हुई सुधियों को भुलाने की
जब कोई याद मुझे आया तो भुलाया न गया |