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"चाय का प्याला / दुर्गा प्रसाद पंडा / दिनेश कुमार माली" के अवतरणों में अंतर

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जिसे मैं ढककर रखता हूँ खूब मेहनत से।
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उतारकर ला सकता है वहाँ से
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दूसरे प्यालों के साथ ?
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इस निरीह प्रश्न की चोट से
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मेरी पूरी कविता का
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धराशायी स्थापत्य
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और मैं समेट लेता हूँ जल्दी से
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डसने से नीले पड़े हुए
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मेरे- विकलांग शब्दों को
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तब तक मेरी कविता का मुँह
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दिखता है कितना असहाय और कातर
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इस साधारण से चाय के मैले प्याले के सामने।
 
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21:47, 26 अक्टूबर 2012 के समय का अवतरण

रचनाकार: दुर्गाप्रसाद पंडा (1970)

जन्मस्थान: बारिपादा

कविता संग्रह: निआं भीतरे हात (2006),पोस्टकार्ड कविता


गाँव के मुहाने पर झोपड़ी होटल में
छप्पर के नीचे
शहर में नहीं दिखने जैसी जगह पर
हमेशा झूलता है चाय का एक मैला प्याला

क्यों झूल रहा है वह चाय का प्याला,
नीचे रखे हुए
दूसरे चाय के प्यालों से पूरी तरह अलग होकर ?
छप्पर के नीचे कालिख लगे कोने में
जिसके पास समय असमय दूर से आता
संभ्रम कुंठा से बढ़ता
एक कमजोर हाथ।

थोड़ी दूर खड़ा होकर
पूरी चाय पीकर प्याले को धोकर
वापस लटका देता है उस कोने में।
फिर चाय का प्याला उस जगह गया कैसे ?
यह सवाल फण उठाकर
बार बार इधर-ऊधर मेरे रास्ते में रूकावट करता है
मैं सोचता हूँ मैं वास्तव में
ऐसे निरीह जीव को नहीं जानता हूँ
चाय के प्याले का वहाँ झूलने का रहस्य
मेरा निरीहपन नहीं है
किसी कुंवारी कन्या का अनाहत सतीत्व
इतना दुर्मूल्य और पवित्र
जिसे मैं ढककर रखता हूँ खूब मेहनत से।

मैं स्वयं से पूछता हूँ
क्या मेरी कविता का हाथ लंबा होकर
उतारकर ला सकता है वहाँ से
चाय के प्याले को
और मिलाकर रख सकता है
दूसरे प्यालों के साथ ?

बुरी तरह से घायल हो गया
इस निरीह प्रश्न की चोट से
मेरी पूरी कविता का
 धराशायी स्थापत्य

और मैं समेट लेता हूँ जल्दी से
डसने से नीले पड़े हुए
मेरे- विकलांग शब्दों को
तब तक मेरी कविता का मुँह
दिखता है कितना असहाय और कातर
इस साधारण से चाय के मैले प्याले के सामने।