"प्रेमरंजन अनिमेष" के अवतरणों में अंतर
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
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− | + | मान | |
− | + | मुसकुराता हुआ वह | |
− | + | बढ़ता मेरी ओर | |
+ | बातें करने लगता आत्मीयता से | ||
− | + | उसकी मुसकान | |
− | + | और ऑंखों की चमक से झलकता | |
− | + | वह मुझे अच्छी तरह जानता | |
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− | + | पहले कहीं मिला होगा | |
− | * | + | हुआ होगा परिचय |
− | + | पर इस समय ध्यान नहीं आ रहा | |
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− | + | और कहिये कैसे हैं | |
− | + | क्या हालचाल है पूछता हूँ | |
− | + | सब कुशल मंगल तो है | |
− | + | घर में ठीक हैं सब लोग | |
− | + | आजकल कहाँ हैं ... | |
− | + | ||
− | + | इसी तरह के सहज सुरक्षित सवाल | |
+ | कि वह जान न पाए | ||
+ | अभी मैं उसे नहीं जानता | ||
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+ | बातें करता | ||
+ | सोचता जाता ज़ाहिर किये बगैर | ||
+ | आखिर कब कहाँ हुई थी भेंट | ||
+ | कैसे किधर से वह जुड़ता है मुझसे | ||
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+ | सुनता कहता | ||
+ | बड़े सँभाल से | ||
+ | कि पकड़ा न जाऊँ | ||
+ | और प्रतीक्षा करता | ||
+ | बातों ही बातों में | ||
+ | कोई सिरा मिले | ||
+ | जिससे पहचान खुले | ||
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+ | माफ करिये भूल रहा आपका नाम ... | ||
+ | सीधे सीधे उसकी मदद ले सकता | ||
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+ | पर डर है उसके आहत होने का | ||
+ | इतनी भली तरह वह मुझे जानता है | ||
+ | और मैं उसका नाम तक नहीं ... | ||
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+ | अभी इतना भी | ||
+ | बड़ा नहीं हुआ | ||
+ | कि न हो इतना ख़याल | ||
+ | कोई मिले और आगे बढ़ जाऊँ कतरा कर | ||
+ | देख कर मुसकुरा कर हाथ हिला कर | ||
+ | निकल जाऊँ उसकी बातों के बीच से | ||
+ | रास्ता बना कर | ||
+ | |||
+ | कोई है जिसे याद हूँ | ||
+ | लेकिन मैं भूल गया हूँ | ||
+ | |||
+ | कुछ हैं | ||
+ | जिन्हें मैं नहीं जानता | ||
+ | पर वे मुझे | ||
+ | जानते हैं | ||
+ | ऐसे कितने हैं ...? | ||
+ | |||
+ | एक पल के लिए | ||
+ | जाने कहाँ से | ||
+ | तुष्टि सी जागती | ||
+ | |||
+ | जबकि संताप होना चाहिए था | ||
+ | अफसोस अपनी लाचारी पर | ||
+ | |||
+ | अब तक पहचान नहीं सका | ||
+ | हालाँकि वह इतनी देर रहा | ||
+ | इतना मौका दिया | ||
+ | |||
+ | चलूँ ...नहीं तो छूट जायेगी गाड़ी | ||
+ | अब वह जा रहा | ||
+ | अब भी नहीं मिला उसका नाम | ||
+ | |||
+ | शायद वह उतना सफल नहीं जीवन में | ||
+ | |||
+ | सफलता का अभी पैमाना यही | ||
+ | कितने तुम्हें जानने वाले | ||
+ | जिन्हें तुम नहीं पहचानते | ||
+ | |||
+ | यह एक ऐसा दौर | ||
+ | जिसमें स्मृति और पहचान | ||
+ | न होने का अभिमान ...! | ||
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+ | ****************** | ||
+ | |||
+ | छोड़ना | ||
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+ | अंधेरे में ही टटोलीं उसने चप्पलें | ||
+ | हाथ में ली औचक बत्ती | ||
+ | और सँकरी सीढ़ियाँ दिखाते | ||
+ | उतरा मुझे छोड़ने | ||
+ | छोड़ खुले दरवाजे | ||
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+ | मेरे बहुत आगे | ||
+ | अपने बहुत पीछे | ||
+ | तक की बातें | ||
+ | करता चलता गया | ||
+ | संकोच से भरा सोचता रहा मैं | ||
+ | जहाँ तक जायेगा छोड़ने | ||
+ | वहाँ से लौटना होगा उसे अकेले | ||
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+ | चित्रांकन - शालिनी | ||
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+ | आधी राह तक आया वह | ||
+ | इससे आगे जाना | ||
+ | संदेह भरता | ||
+ | कि होगा कहीं कोई हित जरूर उसका | ||
+ | अपना लौटना रखा | ||
+ | जितनी रह गयी थी मेरी राह | ||
+ | उससे छूट कर | ||
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+ | इससे बढ़कर | ||
+ | क्या होगा निभाव | ||
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+ | घूँघट की ओट तक | ||
+ | छोड़ता | ||
+ | कोई चौखट तक | ||
+ | गली नगर सीवान पलकों के अनंत अपार | ||
+ | पास के तट तो कोई मरघट तक | ||
+ | रहता देता साथ | ||
+ | |||
+ | उतनी बड़ी ज़िंदगी | ||
+ | कोई अपना देखता जितनी देर | ||
+ | जाते हुए किसी को अपने आगे | ||
+ | उतना ही बड़ा आदमी | ||
+ | छोड़ता जो किसी को जितनी दूर | ||
+ | और बस्ती उतनी ही बड़ी | ||
+ | जहाँ तक लोग लोगों को | ||
+ | लाने छोड़ने जाते | ||
+ | |||
+ | कौन मगर इस भीड़ में | ||
+ | मिलता किसी से | ||
+ | अब कहाँ कोई छोड़ता किसी को | ||
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+ | जबकि छोड़ना भी शामिल है यात्राओं में | ||
+ | |||
+ | गौर करें तो हम सब की यात्रायें | ||
+ | छोड़ने की | ||
+ | यात्रायें हैं | ||
+ | न छोड़ो तब भी | ||
+ | एक एक कर सब छूटते जाते | ||
+ | और कहीं पहुँच कर हम पाते | ||
+ | कि अपना आप ही नहीं साथ | ||
+ | वह भी कहीं | ||
+ | छूट गया ... | ||
+ | |||
+ | तब पता चलता | ||
+ | कई बार तो तब भी नहीं | ||
+ | कि यात्रा अपनी | ||
+ | दरअसल यात्रा अपने को छोड़ने की | ||
+ | |||
+ | छोड़ें अगर किसी को | ||
+ | तो इस तरह | ||
+ | जैसे जाते हुए बहुत अपने को | ||
+ | छोड़ते हैं | ||
+ | प्यार से | ||
+ | साथ जाकर | ||
+ | देर तक | ||
+ | और दूर तक ... | ||
+ | |||
+ | ख़ैर छोड़ो | ||
+ | अब जाने दो यह बात | ||
+ | मैं तुम्हें और तुम मुझे | ||
+ | इस ओस भींगे आधे चाँद की रात | ||
+ | छोड़ते रहे तासहर | ||
+ | |||
+ | जब तक एक न हो जायें | ||
+ | अपने ऑंगन अपने घर |
14:24, 15 अक्टूबर 2007 का अवतरण
मान मुसकुराता हुआ वह बढ़ता मेरी ओर बातें करने लगता आत्मीयता से
उसकी मुसकान और ऑंखों की चमक से झलकता वह मुझे अच्छी तरह जानता
पहले कहीं मिला होगा हुआ होगा परिचय पर इस समय ध्यान नहीं आ रहा
और कहिये कैसे हैं क्या हालचाल है पूछता हूँ सब कुशल मंगल तो है घर में ठीक हैं सब लोग आजकल कहाँ हैं ...
इसी तरह के सहज सुरक्षित सवाल कि वह जान न पाए अभी मैं उसे नहीं जानता
बातें करता
सोचता जाता ज़ाहिर किये बगैर
आखिर कब कहाँ हुई थी भेंट
कैसे किधर से वह जुड़ता है मुझसे
सुनता कहता बड़े सँभाल से कि पकड़ा न जाऊँ और प्रतीक्षा करता बातों ही बातों में कोई सिरा मिले जिससे पहचान खुले
माफ करिये भूल रहा आपका नाम ... सीधे सीधे उसकी मदद ले सकता
पर डर है उसके आहत होने का इतनी भली तरह वह मुझे जानता है और मैं उसका नाम तक नहीं ...
अभी इतना भी बड़ा नहीं हुआ कि न हो इतना ख़याल कोई मिले और आगे बढ़ जाऊँ कतरा कर देख कर मुसकुरा कर हाथ हिला कर निकल जाऊँ उसकी बातों के बीच से रास्ता बना कर
कोई है जिसे याद हूँ लेकिन मैं भूल गया हूँ
कुछ हैं जिन्हें मैं नहीं जानता पर वे मुझे जानते हैं ऐसे कितने हैं ...?
एक पल के लिए जाने कहाँ से तुष्टि सी जागती
जबकि संताप होना चाहिए था अफसोस अपनी लाचारी पर
अब तक पहचान नहीं सका हालाँकि वह इतनी देर रहा इतना मौका दिया
चलूँ ...नहीं तो छूट जायेगी गाड़ी अब वह जा रहा अब भी नहीं मिला उसका नाम
शायद वह उतना सफल नहीं जीवन में
सफलता का अभी पैमाना यही कितने तुम्हें जानने वाले जिन्हें तुम नहीं पहचानते
यह एक ऐसा दौर जिसमें स्मृति और पहचान न होने का अभिमान ...!
छोड़ना
अंधेरे में ही टटोलीं उसने चप्पलें हाथ में ली औचक बत्ती और सँकरी सीढ़ियाँ दिखाते उतरा मुझे छोड़ने छोड़ खुले दरवाजे
मेरे बहुत आगे अपने बहुत पीछे तक की बातें करता चलता गया संकोच से भरा सोचता रहा मैं जहाँ तक जायेगा छोड़ने वहाँ से लौटना होगा उसे अकेले
चित्रांकन - शालिनी
आधी राह तक आया वह इससे आगे जाना संदेह भरता कि होगा कहीं कोई हित जरूर उसका अपना लौटना रखा जितनी रह गयी थी मेरी राह उससे छूट कर
इससे बढ़कर क्या होगा निभाव
घूँघट की ओट तक छोड़ता कोई चौखट तक गली नगर सीवान पलकों के अनंत अपार पास के तट तो कोई मरघट तक रहता देता साथ
उतनी बड़ी ज़िंदगी कोई अपना देखता जितनी देर जाते हुए किसी को अपने आगे उतना ही बड़ा आदमी छोड़ता जो किसी को जितनी दूर और बस्ती उतनी ही बड़ी जहाँ तक लोग लोगों को लाने छोड़ने जाते
कौन मगर इस भीड़ में मिलता किसी से अब कहाँ कोई छोड़ता किसी को
जबकि छोड़ना भी शामिल है यात्राओं में
गौर करें तो हम सब की यात्रायें छोड़ने की यात्रायें हैं न छोड़ो तब भी एक एक कर सब छूटते जाते और कहीं पहुँच कर हम पाते कि अपना आप ही नहीं साथ वह भी कहीं छूट गया ...
तब पता चलता कई बार तो तब भी नहीं कि यात्रा अपनी दरअसल यात्रा अपने को छोड़ने की
छोड़ें अगर किसी को तो इस तरह जैसे जाते हुए बहुत अपने को छोड़ते हैं प्यार से साथ जाकर देर तक और दूर तक ...
ख़ैर छोड़ो अब जाने दो यह बात मैं तुम्हें और तुम मुझे इस ओस भींगे आधे चाँद की रात छोड़ते रहे तासहर
जब तक एक न हो जायें अपने ऑंगन अपने घर