"गंगा की विदाई / माखनलाल चतुर्वेदी" के अवतरणों में अंतर
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+ | शिखर शिखारियों मे मत रोको, | ||
+ | उसको दौड़ लखो मत टोको, | ||
+ | लौटे ? यह न सधेगा रुकना | ||
+ | दौड़, प्रगट होना, फ़िर छुपना, | ||
− | + | अगम नगाधिराज, जाने दो, बिटिया अब ससुराल चली | | |
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− | + | तुम ऊंचे उठते हो रह रह | |
− | + | यह नीचे को दौड़ जाती, | |
− | + | तुम देवो से बतियाते यह, | |
− | अगम नगाधिराज, जाने दो, बिटिया अब ससुराल चली | | + | |
− | + | भू से मिलने को अकुलाती, | |
− | तुम ऊंचे उठते हो रह रह | + | रजत मुकुट तुम मुकुट धारण करते, |
− | यह नीचे को दौड़ जाती, | + | इसकी धारा, सब कुछ बहता, |
− | तुम देवो से बतियाते यह, | + | तुम हो मौन विराट, क्षिप्र यह, |
− | + | इसका बाद रवानी कहता, | |
− | + | ||
− | भू से मिलने को अकुलाती, | + | तुमसे लिपट, लाज से सिमटी, लज्जा विनत निहाल चली, |
− | रजत मुकुट तुम मुकुट धारण करते, | + | अगम नगाधिराज, जाने दो, बिटिया अब ससुराल चली | |
− | इसकी धारा, सब कुछ बहता, | + | |
− | तुम हो मौन विराट, क्षिप्र यह, | + | डेढ सहस मील मे इसने |
− | इसका बाद रवानी कहता, | + | प्रिय की मृदु मनुहारें सुन लीँ, |
− | + | तरल तारिणी तरला ने | |
− | तुमसे लिपट, लाज से सिमटी, लज्जा विनत निहाल चली, | + | सागर की प्रणय पुकारें सुन लीँ, |
− | अगम नगाधिराज, जाने दो, बिटिया अब ससुराल चली | | + | श्रृद्धा से दो बातें करती, |
− | + | साहस पे न्यौछावर होती, | |
− | + | धारा धन्य की ललच उठी है, | |
− | डेढ सहस मील मे इसने | + | मैं पंथिनी अपने घर होती, |
− | प्रिय की मृदु मनुहारें सुन लीँ, | + | |
− | तरल तारिणी तरला ने | + | हरे-हरे अपने आँचल कर, पट पर वैभव डाल चली, |
− | सागर की प्रणय पुकारें सुन लीँ, | + | अगम नगाधिराज, जाने दो, बिटिया अब ससुराल चली | |
− | श्रृद्धा से दो बातें करती, | + | |
− | साहस पे न्यौछावर होती, | + | यह हिमगिरि की जटाशंकरी, |
− | धारा धन्य की ललच उठी है, | + | यह खेतीहर की महारानी, |
− | मैं पंथिनी अपने घर होती, | + | यह भक्तों की अभय देवता, |
− | + | यह तो जन जीवन का पानी ! | |
− | हरे-हरे अपने आँचल कर, पट पर वैभव डाल चली, | + | इसकी लहरों से गर्वित 'भू' |
− | अगम नगाधिराज, जाने दो, बिटिया अब ससुराल चली | | + | ओढे नई चुनरिया धानी, |
− | + | देख रही अनगिनत आज यह, | |
− | + | नौकाओ की आनी-जानी, | |
− | यह हिमगिरि की जटाशंकरी, | + | |
− | यह खेतीहर की महारानी, | + | इसका तट-धन लिए तरानियाँ, गिरा उठाये पाल चली, |
− | यह भक्तों की अभय देवता, | + | अगम नगाधिराज, जाने दो, बिटिया अब ससुराल चली | |
− | यह तो जन जीवन का पानी ! | + | |
− | इसकी लहरों से गर्वित 'भू' | + | शिर से पद तक ऋषि गण प्यारे, |
− | ओढे नई चुनरिया धानी, | + | लिए हुए छविमान हिमालय, |
− | देख रही अनगिनत आज यह, | + | मन्त्र-मन्त्र गुंजित करते हो, |
− | नौकाओ की आनी-जानी, | + | भारत को वरदान हिमालय, |
− | + | उच्च, सुनो सागर की गुरुता, | |
− | इसका तट-धन लिए तरानियाँ, गिरा उठाये पाल चली, | + | कर दो कन्यादान हिमालय | |
− | अगम नगाधिराज, जाने दो, बिटिया अब ससुराल चली | | + | पाल मार्ग से सब प्रदेश, यह तो अपने बंगाल चली, |
− | + | अगम नगाधिराज, जाने दो, बिटिया अब ससुराल चली | | |
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− | शिर से पद तक ऋषि गण प्यारे, | + | |
− | लिए हुए छविमान हिमालय, | + | |
− | मन्त्र-मन्त्र गुंजित करते हो, | + | |
− | भारत को वरदान हिमालय, | + | |
− | उच्च, सुनो सागर की गुरुता, | + | |
− | कर दो कन्यादान हिमालय | | + | |
− | पाल मार्ग से सब प्रदेश, यह तो अपने बंगाल चली, | + | |
− | अगम नगाधिराज, जाने दो, बिटिया अब ससुराल चली | | + | |
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10:05, 6 अक्टूबर 2009 के समय का अवतरण
शिखर शिखारियों मे मत रोको,
उसको दौड़ लखो मत टोको,
लौटे ? यह न सधेगा रुकना
दौड़, प्रगट होना, फ़िर छुपना,
अगम नगाधिराज, जाने दो, बिटिया अब ससुराल चली |
तुम ऊंचे उठते हो रह रह
यह नीचे को दौड़ जाती,
तुम देवो से बतियाते यह,
भू से मिलने को अकुलाती,
रजत मुकुट तुम मुकुट धारण करते,
इसकी धारा, सब कुछ बहता,
तुम हो मौन विराट, क्षिप्र यह,
इसका बाद रवानी कहता,
तुमसे लिपट, लाज से सिमटी, लज्जा विनत निहाल चली,
अगम नगाधिराज, जाने दो, बिटिया अब ससुराल चली |
डेढ सहस मील मे इसने
प्रिय की मृदु मनुहारें सुन लीँ,
तरल तारिणी तरला ने
सागर की प्रणय पुकारें सुन लीँ,
श्रृद्धा से दो बातें करती,
साहस पे न्यौछावर होती,
धारा धन्य की ललच उठी है,
मैं पंथिनी अपने घर होती,
हरे-हरे अपने आँचल कर, पट पर वैभव डाल चली,
अगम नगाधिराज, जाने दो, बिटिया अब ससुराल चली |
यह हिमगिरि की जटाशंकरी,
यह खेतीहर की महारानी,
यह भक्तों की अभय देवता,
यह तो जन जीवन का पानी !
इसकी लहरों से गर्वित 'भू'
ओढे नई चुनरिया धानी,
देख रही अनगिनत आज यह,
नौकाओ की आनी-जानी,
इसका तट-धन लिए तरानियाँ, गिरा उठाये पाल चली,
अगम नगाधिराज, जाने दो, बिटिया अब ससुराल चली |
शिर से पद तक ऋषि गण प्यारे,
लिए हुए छविमान हिमालय,
मन्त्र-मन्त्र गुंजित करते हो,
भारत को वरदान हिमालय,
उच्च, सुनो सागर की गुरुता,
कर दो कन्यादान हिमालय |
पाल मार्ग से सब प्रदेश, यह तो अपने बंगाल चली,
अगम नगाधिराज, जाने दो, बिटिया अब ससुराल चली |