"लफ़्ज़ / पाब्लो नेरूदा" के अवतरणों में अंतर
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लफ़्ज़ वारिद हुआ | लफ़्ज़ वारिद हुआ | ||
− | + | ख़ून में दौड़ गया | |
परवरिश पाता रहा जिस्म की गहराइयों में | परवरिश पाता रहा जिस्म की गहराइयों में | ||
और परवाज़ भरी होंटों से और मुँह से निकल | और परवाज़ भरी होंटों से और मुँह से निकल | ||
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पुरखों दर पुरखों भी और नस्लों की मीरास के साथ | पुरखों दर पुरखों भी और नस्लों की मीरास के साथ | ||
और वह बस्तियाँ जो पहने थी पत्थर के लिबास | और वह बस्तियाँ जो पहने थी पत्थर के लिबास | ||
− | थक चुकी थीं जो | + | थक चुकी थीं जो ख़ुद अपने ही बाशिन्दों से दबी |
− | क्योंकि जब दर्द ने | + | क्योंकि जब दर्द ने सड़कों को छुआ और बढ़ा |
लोग आते भी गए दूर कहीं जाते भी | लोग आते भी गए दूर कहीं जाते भी | ||
बीज लफ़्ज़ों के दुबारा कहीं बोने के लिए | बीज लफ़्ज़ों के दुबारा कहीं बोने के लिए | ||
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और यही वजह है मीरास हमारी है यह | और यही वजह है मीरास हमारी है यह | ||
वही झोके हैं हवाओं के कि जोड़ें हमको | वही झोके हैं हवाओं के कि जोड़ें हमको | ||
− | दफ़न | + | दफ़न इनसानों से रिश्तों ने पिरोएँ हमको |
और वह सुबह नई सुबह का पैग़ाम नया | और वह सुबह नई सुबह का पैग़ाम नया | ||
जो कि बेताब है मंज़र पे कभी आने को | जो कि बेताब है मंज़र पे कभी आने को | ||
आज भी काँपती है सारी फ़िज़ा | आज भी काँपती है सारी फ़िज़ा | ||
गूँज से लफ़्ज़ की जो पहले पहल बोला गया | गूँज से लफ़्ज़ की जो पहले पहल बोला गया | ||
− | घोर | + | घोर अन्धियारों में डर और किसी आह के साथ |
− | लफ़्ज़ उभरा तो सही पर कहीं | + | लफ़्ज़ उभरा तो सही पर कहीं गरजा न कोई |
− | और फिर आहनी झंकार सी बहती ही रही | + | और फिर आहनी झंकार-सी बहती ही रही |
उसी एक लफ़्ज़ की | उसी एक लफ़्ज़ की | ||
जो पहले पहल बोला गया | जो पहले पहल बोला गया | ||
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वक़्त गुज़रा तो फिर इस लफ़्ज़ में मानी उभरे | वक़्त गुज़रा तो फिर इस लफ़्ज़ में मानी उभरे | ||
कोई बच्चा था जो जीवन को सजाने आया | कोई बच्चा था जो जीवन को सजाने आया | ||
− | तमाम | + | तमाम ख़ल्क़ महज़ जन्म थी और थी आवाज़ |
इत्तेफ़ाक़ , साफ़ और मज़बूती लिए | इत्तेफ़ाक़ , साफ़ और मज़बूती लिए | ||
साथ इनकार लिए | साथ इनकार लिए | ||
− | और तबाही का,कभी मौत का पैग़ाम लिए | + | और तबाही का, कभी मौत का पैग़ाम लिए |
− | सारी ताक़त सिमट के घुल | + | सारी ताक़त सिमट के घुल गई क्रियाओं में |
बिजलियाँ भर गईं रौनक़, जो मिले दो पहलू | बिजलियाँ भर गईं रौनक़, जो मिले दो पहलू | ||
ज़िन्दगानी का वजूद और उसके साथ की ख़ुशबू | ज़िन्दगानी का वजूद और उसके साथ की ख़ुशबू | ||
रौशनी फैल गई और सजावट से धजी चाँदी से | रौशनी फैल गई और सजावट से धजी चाँदी से | ||
− | उसके कोनों थे हर्फ़ और जो अल्फ़ाज़ थे | + | उसके कोनों थे हर्फ़ और जो अल्फ़ाज़ थे इनसानों के |
और विरासत का था जो जाम वह छलका ऐसे | और विरासत का था जो जाम वह छलका ऐसे | ||
− | + | ख़ून में फैल गया अपना बयाँ साथ लिए | |
यह वह लम्हा था कि ख़ामोशी का दामन फैला | यह वह लम्हा था कि ख़ामोशी का दामन फैला | ||
− | सफ़र पूरा हुआ | + | सफ़र पूरा हुआ इनसान के लफ़्ज़ों में समा |
− | मौत का ज़िक्र ही क्या, | + | मौत का ज़िक्र ही क्या, इनसान का पूरा ही वजूद |
भाषा विस्तार ले तो बालों में उगती है जुबाँ | भाषा विस्तार ले तो बालों में उगती है जुबाँ | ||
− | होंट हिलते भी नहीं | + | होंट हिलते भी नहीं मुँह से निकलते हैं लफ्ज़ |
− | घुल गया सारा वजूद लफ़्ज़ में | + | घुल गया सारा वजूद लफ़्ज़ में इनसानों के |
यक-ब-यक नज़रें ही बन जाती हैं लफ्ज़ | यक-ब-यक नज़रें ही बन जाती हैं लफ्ज़ | ||
लफ़्ज़ों को लेता हूँ और नफ्स में भर लेता हूँ | लफ़्ज़ों को लेता हूँ और नफ्स में भर लेता हूँ | ||
− | ऐसा लगता है कि यह लफ़्ज़ नहीं | + | ऐसा लगता है कि यह लफ़्ज़ नहीं इनसाँ हैं |
लफ़्ज़ों के लय में उतरता हूँ तो खो जाता हूँ | लफ़्ज़ों के लय में उतरता हूँ तो खो जाता हूँ | ||
इनकी तरतीब मुझे डालती है हैरत में | इनकी तरतीब मुझे डालती है हैरत में | ||
− | बुदबुदाता हूँ कि | + | बुदबुदाता हूँ कि ज़िन्दा हूँ अभी |
और हैरत में हूँ कुछ बोल नहीं पाता हूँ । | और हैरत में हूँ कुछ बोल नहीं पाता हूँ । | ||
− | और धीरे से क़दम अपने | + | और धीरे से क़दम अपने बढ़ाता हूँ उधर |
ख़ामोशी लफ़्ज़ों की छाई है जिधर | ख़ामोशी लफ़्ज़ों की छाई है जिधर | ||
जाम उठाता हूँ मैं लफ़्ज़ों के लिए | जाम उठाता हूँ मैं लफ़्ज़ों के लिए | ||
लफ़्ज़ एक या कि दमकता शीशा | लफ़्ज़ एक या कि दमकता शीशा | ||
− | जिसमे मैं | + | जिसमे मैं ढालता हूँ जाम अपना |
जाम यह भाषा की खालिस मय है | जाम यह भाषा की खालिस मय है | ||
कोई बहता हुआ पानी जो ठहरता ही नहीं | कोई बहता हुआ पानी जो ठहरता ही नहीं | ||
लफ़्ज़ के जन्म का की वजह है यह | लफ़्ज़ के जन्म का की वजह है यह | ||
जाम और पानी और खालिस यह शराब | जाम और पानी और खालिस यह शराब | ||
− | मेरे नग़मों को | + | मेरे नग़मों को बुलन्दी-सी अता करते हैं |
− | क्रिया है लफ़्ज़ों की | + | क्रिया है लफ़्ज़ों की जाँ और ज़रिया वाहिद |
− | + | ज़िन्दगी बन के मेरे खूँ में उतर जाती है | |
− | + | ख़ून जो लफ़्ज़ों के मानी को बयाँ करता है | |
− | खुद को फैलाव का | + | खुद को फैलाव का पैग़ाम दिया करता है |
− | लफ़्ज़ शीशे को ज़िया देते हैं और | + | लफ़्ज़ शीशे को ज़िया देते हैं और ख़ून को ख़ून |
और जीवन को भी यह जीवन ही अता करते हैं । | और जीवन को भी यह जीवन ही अता करते हैं । | ||
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16:02, 8 मार्च 2019 का अवतरण
लफ़्ज़ वारिद हुआ
ख़ून में दौड़ गया
परवरिश पाता रहा जिस्म की गहराइयों में
और परवाज़ भरी होंटों से और मुँह से निकल
दूर से दूर भी नज़दीक बहुत ही नज़दीक
लफ़्ज़ बरसा किए
पुरखों दर पुरखों भी और नस्लों की मीरास के साथ
और वह बस्तियाँ जो पहने थी पत्थर के लिबास
थक चुकी थीं जो ख़ुद अपने ही बाशिन्दों से दबी
क्योंकि जब दर्द ने सड़कों को छुआ और बढ़ा
लोग आते भी गए दूर कहीं जाते भी
बीज लफ़्ज़ों के दुबारा कहीं बोने के लिए
पानी का रिश्ता ज़मीनों से बनाने के लिए
और यही वजह है मीरास हमारी है यह
वही झोके हैं हवाओं के कि जोड़ें हमको
दफ़न इनसानों से रिश्तों ने पिरोएँ हमको
और वह सुबह नई सुबह का पैग़ाम नया
जो कि बेताब है मंज़र पे कभी आने को
आज भी काँपती है सारी फ़िज़ा
गूँज से लफ़्ज़ की जो पहले पहल बोला गया
घोर अन्धियारों में डर और किसी आह के साथ
लफ़्ज़ उभरा तो सही पर कहीं गरजा न कोई
और फिर आहनी झंकार-सी बहती ही रही
उसी एक लफ़्ज़ की
जो पहले पहल बोला गया
गो कि मुमकिन है कि एक लहर थी या इक क़तरा
अब यह आलम है कि झरना है जो रुकता ही नहीं
वक़्त गुज़रा तो फिर इस लफ़्ज़ में मानी उभरे
कोई बच्चा था जो जीवन को सजाने आया
तमाम ख़ल्क़ महज़ जन्म थी और थी आवाज़
इत्तेफ़ाक़ , साफ़ और मज़बूती लिए
साथ इनकार लिए
और तबाही का, कभी मौत का पैग़ाम लिए
सारी ताक़त सिमट के घुल गई क्रियाओं में
बिजलियाँ भर गईं रौनक़, जो मिले दो पहलू
ज़िन्दगानी का वजूद और उसके साथ की ख़ुशबू
रौशनी फैल गई और सजावट से धजी चाँदी से
उसके कोनों थे हर्फ़ और जो अल्फ़ाज़ थे इनसानों के
और विरासत का था जो जाम वह छलका ऐसे
ख़ून में फैल गया अपना बयाँ साथ लिए
यह वह लम्हा था कि ख़ामोशी का दामन फैला
सफ़र पूरा हुआ इनसान के लफ़्ज़ों में समा
मौत का ज़िक्र ही क्या, इनसान का पूरा ही वजूद
भाषा विस्तार ले तो बालों में उगती है जुबाँ
होंट हिलते भी नहीं मुँह से निकलते हैं लफ्ज़
घुल गया सारा वजूद लफ़्ज़ में इनसानों के
यक-ब-यक नज़रें ही बन जाती हैं लफ्ज़
लफ़्ज़ों को लेता हूँ और नफ्स में भर लेता हूँ
ऐसा लगता है कि यह लफ़्ज़ नहीं इनसाँ हैं
लफ़्ज़ों के लय में उतरता हूँ तो खो जाता हूँ
इनकी तरतीब मुझे डालती है हैरत में
बुदबुदाता हूँ कि ज़िन्दा हूँ अभी
और हैरत में हूँ कुछ बोल नहीं पाता हूँ ।
और धीरे से क़दम अपने बढ़ाता हूँ उधर
ख़ामोशी लफ़्ज़ों की छाई है जिधर
जाम उठाता हूँ मैं लफ़्ज़ों के लिए
लफ़्ज़ एक या कि दमकता शीशा
जिसमे मैं ढालता हूँ जाम अपना
जाम यह भाषा की खालिस मय है
कोई बहता हुआ पानी जो ठहरता ही नहीं
लफ़्ज़ के जन्म का की वजह है यह
जाम और पानी और खालिस यह शराब
मेरे नग़मों को बुलन्दी-सी अता करते हैं
क्रिया है लफ़्ज़ों की जाँ और ज़रिया वाहिद
ज़िन्दगी बन के मेरे खूँ में उतर जाती है
ख़ून जो लफ़्ज़ों के मानी को बयाँ करता है
खुद को फैलाव का पैग़ाम दिया करता है
लफ़्ज़ शीशे को ज़िया देते हैं और ख़ून को ख़ून
और जीवन को भी यह जीवन ही अता करते हैं ।