भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"हो पाता ऐसा / अर्चना भैंसारे" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अर्चना भैंसारे |अनुवादक= |संग्रह= }...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 3: | पंक्ति 3: | ||
|रचनाकार=अर्चना भैंसारे | |रचनाकार=अर्चना भैंसारे | ||
|अनुवादक= | |अनुवादक= | ||
− | |संग्रह= | + | |संग्रह=कुछ बूढ़ी उदास औरतें / अर्चना भैंसारे |
}} | }} | ||
{{KKCatKavita}} | {{KKCatKavita}} |
15:58, 3 नवम्बर 2013 के समय का अवतरण
सोचती हूँ आजकल
पिता का चेहरा उदासीन क्यों है ?
माँ की आँखें इतनी बोझिल
जबकि हज़ारों हज़ार रंग हैं दुनिया जहान में ।
काश हो पाता ऐसा
सड़कों पर खेलते बच्चों की हँसी
कूदकर आ जाती रोशनदान से
आँगन में बिखरे होते
चिडियों के पर
बाड़े का जाम
उग आता, जाने पहचाने स्वाद के साथ
फेरी लगाता वही, दाढ़ीवाला दाजी
चूडियाँ ले लो री... की टेर लगाता
लौटता गली में
नेम-धरम, तीज-त्योहार, पुरानी चमक-गमक लिए
उतर आते
पिता के चेहरे और माँ की आँखों में ।
सोचती हूँ आजकल
अपने-अपने भीतर जाने क्या बो रहे हैं दोनों
कि इतनी काँटेदार झाडियाँ उग आई है सपनों के भीतर ।