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"बड़ी लम्बी राह / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर

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|संग्रह=अरी ओ करुणा प्रभामय / अज्ञेय
 
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न देखो लौट कर पीछे
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मूल्य के भी मूल्य की जो थाह पाने<br>
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पुनीत है, उन से बँधे
एक मरु-सागर उलीच रहा अकेला ?<br>
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सरकार आयेंगे चले 
जल जहाँ है नहीं<br>
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क्या वह अब्धि है ?<br>
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बड़ी लम्बी राह। जब उस ओर<br>
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बड़ी लम्बी राह ! अब इस ओर पर  
थे हम, एक संवेदना की डोर<br>
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बाँधती थी हमें—तुम को : और हम-तुम मानते थे<br>
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मुझे तुम से काटती हैं :  
डोरियाँ कच्ची भले हों, सूत क्योंकि <br>
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और फिर लोहू-सनी उन धारियों में  
पुनीत है, उन से बँधे<br>
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और राहों की अथक ललकार है।  
सरकार आयेंगे चले<br><br>
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और वे सरकार ? कितनी बार हम-तुम और जायेंगे छले !  
 
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संवेदना की आरियाँ ही<br>
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मुझे तुम से काटती हैं :<br>
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और फिर लोहू-सनी उन धारियों में<br>
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और राहों की अथक ललकार है।<br>
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और वे सरकार ? कितनी बार हम-तुम और जायेंगे छले !<br>
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00:21, 2 नवम्बर 2009 का अवतरण

न देखो लौट कर पीछे
वहाँ कुछ नहीं दीखेगा
न कुछ है देखने को
उन लकीरों के सिवा, जो राह चलते
हमारे ही चेहरों पर लिख गयीं
अनुभूति के तेज़ाब से

राह चलते
बड़ी लम्बी राह।

गा रही थी एक दिन
उस छोर बेपरवाह,
लोभनीय, सुहावनी, रूमानियत की चाह
--अवगुण्ठवमयी ठगिनी !—
एक मीठी रागिनी

बड़ी लम्बी राह।
आज सँकरे मोड़ पर यह
वास्तविक विडम्बना
रो रही है :
एक नंगी डाकिनी

बड़ी लम्बी राह : आह,
पनाह इस पर नहीं—
कोई ठौर जिस पर छाँह हो।
कौन आँके मोल उस के शोध का
मूल्य के भी मूल्य की जो थाह पाने
एक मरु-सागर उलीच रहा अकेला ?
जल जहाँ है नहीं
क्या वह अब्धि है ?
रेत क्या
उपलब्धि है ?

बड़ी लम्बी राह। जब उस ओर
थे हम, एक संवेदना की डोर
बाँधती थी हमें—तुम को : और हम-तुम मानते थे
डोरियाँ कच्ची भले हों, सूत क्योंकि
पुनीत है, उन से बँधे
सरकार आयेंगे चले

बड़ी लम्बी राह ! अब इस ओर पर
संवेदना की आरियाँ ही
मुझे तुम से काटती हैं :
और फिर लोहू-सनी उन धारियों में
और राहों की अथक ललकार है।
और वे सरकार ? कितनी बार हम-तुम और जायेंगे छले !