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रचनाकार: [[द्विजेन्द्र 'द्विज']]
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रचनाकार: [[दास दरभंगवी]]
 
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इसी तरह से ये काँटा निकाल देते हैं
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लोटा भर पानी दुपहर में गुड़ के संग पिला दो जी
हम अपने दर्द को ग़ज़लों में ढाल देते हैं
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चार शायरी लेकर मुझको मछली भात खिला दो जी
  
हमारी नींदों में अक्सर जो डालती हैं ख़लल
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पायल कंगन कनबाली सब ले लो, ए डाक्‍टर साहेब !
वो ऐसी बातों को दिल से निकाल देते हैं
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किसी तरह मेरे बेटे को चंगा करो, जिला दो जी
  
हमारे कल की ख़ुदा जाने शक़्ल क्या होगी
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बरसों से पहना करते हैं वही एक पतलून-कमीज
हर एक बात को हम कल पे टाल देते हैं
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अपने पैसे से मुझको तुम कपड़े नये सिला दो जी
  
कहीं दिखे ही नहीं गाँवों में वो पेड़ हमें
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गाँव छोड़ कर शहर और परदेस चले जाते हैं लोग
बुज़ुर्ग साये की जिनके मिसाल देते हैं
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लोगों को अपने घर में ही कोई काम दिला दो जी
  
कमाल ये है वो गोहरशनास हैं ही नहीं
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सड़कें पानी बिजली रोटी रोज़गार का हाल बुरा
जो इक नज़र में समंदर खंगाल देते है
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बरगद जैसी जमी हुई सत्ता को जरा हिला दो जी
 
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वो सारे हादसे हिम्मत बढ़ा गए ‘द्विज’ की
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कि जिनके साये ही दम-ख़म पिघाल देते हैं
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19:24, 4 जनवरी 2014 का अवतरण

हमारे कल की ख़ुदा जाने शक़्ल क्या होगी

रचनाकार: दास दरभंगवी

लोटा भर पानी दुपहर में गुड़ के संग पिला दो जी
चार शायरी लेकर मुझको मछली भात खिला दो जी

पायल कंगन कनबाली सब ले लो, ए डाक्‍टर साहेब !
किसी तरह मेरे बेटे को चंगा करो, जिला दो जी

बरसों से पहना करते हैं वही एक पतलून-कमीज
अपने पैसे से मुझको तुम कपड़े नये सिला दो जी

गाँव छोड़ कर शहर और परदेस चले जाते हैं लोग
लोगों को अपने घर में ही कोई काम दिला दो जी

सड़कें पानी बिजली रोटी रोज़गार का हाल बुरा
बरगद जैसी जमी हुई सत्ता को जरा हिला दो जी